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Tuesday, December 24, 2013

हवा और शज़र...

इक शज़र की दोस्ती हुई हवा के रुख़ से,
रोज़ मिलना तय हुआ एक-दूसरे के वजूद से..

हवा थी बड़ी चंचल,
इधर से उधर भागती फिरती ।
शज़र था बड़ा स्थिर,
शांत और सहनशील ।

दोनों मिलते..
लिपटते..
झूमते..
बिखरते..
संभलते..
और फिर खिलते ।

हवा की अँगड़ाई थी,
शज़र के दिल का चैन ।
जो एक दिन रूठ कर ,
शांत रही थी दिनभर..
हो गया था शज़र बड़ा बेचैन ।
आधी रात जब आयी,
हवा अपना गुस्सा लेकर..
गुज़री थी शज़र के सामने,
आंधी बनकर ।

अब शज़र नहीं करता
हवा को नाराज़ ।
जब आती है हवा संवरकर
तो लगाता है उसे
प्यार से आवाज़ ।
चुपचाप लेता है
हवा को अपनी पनाहों में..
पत्ते-फूल सब मुस्कुराते है,
तब बागानों में ।

अब हवा भी लहराती है अपना आँचल
फिज़ाओं में..
और शज़र भी बरसाता है अपनी छाँव
जहानों में..

हवा का आँचल और शज़र की छाँव..
मशहूर है शहर में..
अब होती है हर शाम,
"आँचल की छाँव" !!!

Friday, December 20, 2013

शायद, ग़ज़ल बन गयी है ये...

तुमने कहा था एक बार, दूर चली जाओ मुझसे..
अब तुम्हारे साथ रहने की ये आदत जाते-जाते जायेगी ।

तुमने कहा था, फुरसत में कभी मिलेंगे तो कर लेंगे दो बातें..
अब मेरी बेसाख्ता दिल-ए-इज़हार करने की ये आदत जाते-जाते जायेगी ।

तुम्हें होगी ज़माने की परवाह हर वक़्त..
मेरा सिर्फ तुम्हारी परवाह करना, ये आदत जाते-जाते जायेगी ।

अपनी डायरी में तुम्हारा नाम लिख-लिखकर मिटाना..
तुम्हें महसूस करने की बेवजह सी ये आदत जाते-जाते जायेगी ।

हमें कहाँ मालूम था कि तुम मुस्तक़बिल-ए-नारसा* हो..
मुझ जैसी शून्य का
तुम जैसे क्षितिज की ख़्वाहिश करने की ये आदत जाते-जाते जायेगी ।

ख़ामोश-से,अनकहे, अनसुलझे बातों को पिरोकर ग़ज़ल- ख़्वानी^ कहना..
अब खामखाँ अपनी बात कहने की ये आदत जाते-जाते जायेगी ।

*भविष्य, जिस तक पहुंचा ना जा सके
^ग़ज़ल की प्रस्तुति

(कुछ गलतियाँ हुईं हो तो बड़े लोग गुस्ताख़ी समझकर माफ़ करेंगे)

Tuesday, December 17, 2013

अकेलापन है कि आवारापन !

अकेलापन हमसे क्या-क्या करवा देता है...जो चाहते है हम वो भी और जो ना चाहते है वो भी...

वैसे ये अकेलापन खुद तो इतना अकेला है लेकिन, हमारे पास आकर हमें भी अकेला कर जाता है..मतलब हमारे साथ आकर रहने लगता है, तो इस हिसाब से अकेले कहाँ हुए हम !!

किसी ने सुझाव दिया कि अकेलेपन से इतने ही परेशान हो तो दुकेले हो जाओ.. एक से भले दो। लेकिन अकेलापन तो सबके भीतर है..और इस हिसाब से दुकेले वाला दूसरा इंसान भी अकेलेपन से ग्रसित हुआ तब तो दो लोगों के अकेलेपन मिलकर और ज़्यादा अकेले नहीं हो जायेंगे !!

फिर किसी ने सुझाया, अकेलापन भीतर है.. इसलिए इसको बाहर निकाल फेंको.. अपने से दूर कर दो। अमां यार, अब इस नज़रिये से भी तो देखो कि "जो जितना दूर है, वही उतना पास है" - इस हिसाब से तो अकेलापन पास हुआ ना !!!

एक बहुत ही ख़ास मित्र ने कहा, "अकेलेपन को हम इधर-उधर की जितनी चीजों से भरते है, यह उतना और बड़ा होता जाता है" -- यार, अकेलापन है कि गुल्लक है..मैं पूछती हूँ इस गुल्लक से गुडलक निकलेगा क्या !!

अकेलापन अकेलापन अकेलापन...साला अकेलापन ना हुआ आवारापन हो गया। कहते है, "खाली दिमाग शैतान का घर होता है" ...और अगर दिल खाली होता हो तो किसका घर होता है !!!

ऐसा करते है, इस अकेलेपन को ही अकेला कर देते है..जब ख़ुद अकेला रहेगा ना, तब अक्ल ठिकाने आएगी इसके..तब इसे समझ आएगा अकेलेपन का बोझ...

सोचा था 'अकेलेपन' पर कुछ बहुत सीरियस टाइप लिखूंगी..लेकिन ये कुछ funny जैसा हो गया... यकीन मानिए शुरुआत भी सीरियस टाइप ही लिखने की थी...कोशिश भी पूरी थी... पहले की दो लाइने अकेलेपन के आक्रमण और आघात का ही परिणाम है..

देखा ना, अकेलापन क्या-क्या करवा देता है..पोस्ट की शुरुआत से मैं यही तो बोलने की कोशिश कर रही हूँ.. अब इस पोस्ट से आप कुछ समझ पाए तो मेरे लिए दुआ कीजियेगा... लेकिन, अगर कहीं पढने के बाद आपको किसी मनोचिकित्सक की ज़रुरत महसूस हो तो भी मेरे लिए दुआ कीजियेगा..क्यूंकि यही हाल होता है अकेलेपन से..
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Friday, December 13, 2013

डायरी का एक पन्ना...

अपनी डायरी में कुछ लिखना चाहती हूँ..
तुम्हें बहुत कुछ बताना चाहती हूँ...
कोशिशें नाकाम हो गयी,
मैं भी थक गयी हूँ अब..
कुछ समझ नहीं आ रहा..
क्या कहूं..कैसे लिखूँ..कैसे बताऊँ !!!
बस,
अपनी डायरी में कुछ लिखना चाहती हूँ ।

सोचती हूँ,
डायरी का ऐसा एक पन्ना तो हो,
जिसपर क्रॉस का निशान करके
उसे मरोड़कर डस्टबिन में ना फेंक पाऊं..
जिसपर कुछ ऐसा लिख जाऊं,
जो संभाले रख सकूं अपने पास सालों-साल...
मैं भी तुम्हारी ज़िन्दगी का
ऐसा ही एक 'पन्ना' होना चाहती हूँ ।

लेकिन मैं शायद वो पन्ना थी,
जिसपर तुमने रफ़ का कुछ काम कर..
पढ़ा, समझा और फिर फाड़कर फेंक दिया था ।
अब इस फटे हुए पन्ने के पास शब्दों की कमी-सी है
बस ख़्यालो और यादों की नमी-सी है...
हर्फ़े रूठ गयी.. तुम जुदा हो गए...

बस डायरी का एक पन्ना अब भी खाली है...
जिसपर कुछ लिखना चाहती हूँ...!

Wednesday, November 27, 2013

देखना एक दिन...

देखना एक दिन,
गोरैया बनकर तुम्हारे आँगन में आकर बैठूंगी...
सुबह-सुबह की तुम्हारी हरकतों को,
टुकुर-टुकुर देखूंगी...
दाना डाल देना,
चुपचाप फिर चली जाऊँगी।

देखना एक दिन,
गिलहरी बनकर तुम्हारी बालकनी में टहलूंगी...
कमरे के अंदर हल्के से झांककर,
तुम्हें लैपटॉप पे काम करते हुए देखूंगी..
धीरे से तुम्हारे करीब आने की कोशिश करुँगी,
पलटकर जब देखोगे मेरी ओर..
तब सरपट बालकनी में भाग जाऊँगी ।

देखना एक दिन,
कोयल बनकर तुम्हारी छत पर आऊँगी...
कुहू करते करते प्यास बड़ी लगती है..
पानी रख देना,
इस कोयल को तुम्हारे हाथ से पानी बड़ी मीठी लगती है..
पानी पियूंगी, तुम्हें देखूंगी,
कुहू करुँगी और फिर उड़ जाऊँगी ।

अगर ऐसा होता तो तुमसे मिलना कितना आसान होता ना !
इंतज़ार करना,
कभी ऐसा ही भेस बनाकर तुमसे मिलने आ जाऊँगी..

अगर तुम मुझे पहचान नहीं पाओगे..
कम से कम मैं तो तुम्हें जी-भर देख पाऊँगी...
इंतज़ार करना,
इक दिन तुम्हारे आँगन में ज़रूर आऊँगी ...

Sunday, November 24, 2013

नज़्में सुना जाना...

जब दूर चली जाऊँगी तुमसे...
तब मुझे ढूंढते हुए मेरी क़ब्र पे आना..
दो नज़्में सुना जाना..
मेरे साथ-साथ मेरे हिस्से की ज़मीं भी हसीं हो जायेगी ।

फूल ना लाना,
आँसू भी ना बहाना,
बस दो बातें सुना जाना ।

समंदर के किनारे वाली बेंच पर,
जहाँ रोज़ बैठा करते थे हम..
रेत का एक घर बनाते,
अपना नाम लिखा करते थे हम..
और जब समंदर अपने साथ
बहा ले जाती थी हमारे आशियाने को,
मैं कहती ये हमारे सपने के पूरा होने का इशारा है..
तुम धीरे से मेरे कानों में कहते - 'नौटंकी' ।
कौन-सा ऐसा तूफ़ान आया फिर,
जो बहा ले गया हमारी ख़्वाहिशों के आशियाने को ?
तुम क्यूँ नहीं समझ पाए ?

अब देखो मैं ज़मीं के अंदर मिट्टी-मिट्टी, रेत-रेत इकट्ठा कर रही हूँ..
फिर कभी मिलेंगे, तो बनायेंगे अपना आशियाना..
समंदर से कहेंगे, कर दो हमारी ख़्वाहिश पूरी...

लेकिन तब तक
जब भी मुझसे मिलने आना,
दो नज़्में सुना जाना..
फूल ना लाना,
फूल मुरझा जाते है।
नज़्में सुना जाना..
शब्दें खिली रहती है..
ज़िंदा रहती है...
सुकून देती है।

नज़्में सुना जाना...
दो नज़्में सुना जाना ...

Wednesday, October 30, 2013

ये 'नज़्म' कौन है ?

पिछले दिनों समन्वय में पहली बार गुलज़ार साब को लाइव सुनने का मौका मिला। कार्यक्रम में गुलज़ार साब ने 'नज़्म' पर इतनी नज़्में सुनायी कि नज़्म से जलन होने लगी। इसलिए मैं नज़्म की खोज-पड़ताल करने लगी... हाथ कुछ नहीं लगा.. बस ये बेतरतीब ख्य़ाल दिमाग में आ गए और कागज़ पर उतार दिया इन्हेँ । वैसे भी जब कोई बेहद पसंदीदा शायर नज़्म पर ऐसे रूमानी अंदाज़ में नज़्म लिखता है तो कुछ इसी तरह का ख्य़ाल आता है ~~

सुनो,
ये नज़्म कौन है...ज़रा बताना तो ! आजकल तुम्हारी डायरी में हर जगह नज़र आ रही है। अब फिर कोई शायरी बनाकर ये सवाल मत टाल देना।


आजकल रातों को मेरी नींद खुल जाती है, जब देखती हूँ तुम्हें डायरी और नज़्म के साथ।  तुम्हारी डायरी, तुम्हारी नज़्म और तुम्हारी सिगरेट... ऊफ़ !


तुम भी जानबूझकर, मुस्कुरा कर मुझसे नज़रें चुरा लेते हो ना !! मुझे चिढ़ाने में तो तुम्हें मज़ा आता है।

जब देखो तब तीन स्त्रीलिंग से तो घिरे ही रहते हो - नज़्म, शायरी और कविता।  इसलिए शायरों का नाम ख़राब है। 

चलो, बहुत हो गया ! एक बार बता दो ना, ये नज़्म कौन है?
कहीं मेरा ही कोई नाम तो नहीं रखा तुमने !!
बोलो, मैं ही हूँ ना नज़्म !
...तुम्हारी नज़्म

Tuesday, October 29, 2013

...सोचती हूँ !

सोचती हूँ जब मिलोगे तब क्या कहूँगी तुमसे ?
कुछ कह भी पाऊंगी या सिर्फ देखती ही रह जाऊंगी तुम्हे...

सोचती हूँ जब मिलोगे तब कुछ नहीं कहूँगी तुमसे..
बस कस कर गले लग जाऊंगी तुम्हारे...

सोचती हूँ जब मिलोगे तब कितना चहकूंगी मैं..
पाँव ज़मीं पर नहीं होंगे, जब साथ तुम्हारे होऊंगी मैं...

सोचती हूँ जब मिलोगे तब क्या करुँगी मैं..
अपनी बातों की चटर-पटर से भर दूंगी तुम्हें...

सोचती हूँ जब मिलोगे, तब...
...नहीं, कुछ नहीं कह पाऊंगी मैं
चुप ही रह जाऊंगी मैं ।


फिर सोचती हूँ जब मिलोगे तो तुम क्या करोगे ?
जब गले लगूंगी तब अपने सीने में छुपा लोगे और कानों में हल्के से कुछ कह दोगे ।

जब बकबक करुँगी तब मेरे होंठो पर अपनी ऊँगली रखकर चुप करा दोगे..
और कहोगे वो बात, जो मैं सुनना चाहती हूँ ।

या जब साथ बैठी रहूंगी तुम्हारे.. तो बस हाथो में मेरा हाथ थामे रहोगे !!


जब ऐसा करोगे तब क्या करुँगी मैं ?
मैं...!!!
...मैं तो बस नीची नज़रों से तुम्हें देखती रहूंगी..


सोचती हूँ जब मिलोगे तब कुछ कहोगे भी या नहीं कहोगे मुझसे !!
बिना कुछ कहे सब बोल जाने की  आदत जो है तुम्हारी,
पर मैं पगली नहीं समझती ना तुम्हारी इस भाषा को ।

सुनो ना,
कुछ कह देना... बस सीने में भर लेना..
झटकना मत... बस कसकर गले से लगा लेना.....

Sunday, August 25, 2013

फिर वही सवाल...!

मुंबई गैंग रेप के बाद एक बार फिर देश भर में महिलाओं की सुरक्षा के लिए आवाज़ बुलंद है। लोग फिर से सडको पर है.. सोशल मीडिया पर भी लोग अपनी भड़ास खूब निकाल रहे है। टीवी पैनलों में डिस्कशन चालू है।  सब कुछ अपनी गति से अपनी-अपनी दिशा में कार्यरत है। कोई इस बात से नाराज़ है कि चैनल में इस स्टोरी पर रिपोर्ट दिखाने के दौरान अपने चेहरे को हाथ से ढंकी लड़की की तस्वीर क्यूँ दिखाई जा रही है, तो कहीं कुछ पत्रकारों की विशेष सुरक्षा की भी मांग कर रहे है। विरोध जताने के सबके अपने तरीके है, ठीक भी है - कैसे भी हो विरोध होना ज़रूरी है। इस विरोध जताने की प्रक्रिया में बड़ी संख्या में पुरुष भी है, जिन्हें आगे आते देख, सब समझते और समझाते हुए देख बहुत अच्छा लगता है। फिर भी एक बात जो ऐसी घटनाओं के बाद हर बार मन में आती है, वो ये कि आखिर मनोवृत्ति (mentality) कब बदलेगी? कब हम सारे मर्द के बारे में ऐसा ही अच्छा सोंचेंगे ! कब हम महसूस करेंगे कि 'नहीं, सामने वाला लड़का/पुरुष कुछ गलत नज़र से नहीं देख रहा' !!

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दिल्ली गैंग रेप के बाद हम सब का गुस्सा उबाल पर था। हम इंडिया गेट से लेकर राष्ट्रपति भवन के बाहर तक इकठ्ठा हुए, नारे लगाए, दिल्ली पुलिस डाउन डाउन। वाटर कैनन और आंसू गैस झेले, लाठी भी खाई। वैसे उस दिन अपने पैरो पर एक लाठी खाने के बाद ये तो पता चल गया था कि पुलिस की लाठी में बहुत ताकत होती है..शायद सही जगह इस्तेमाल की जाए तो कुछ परसेंट अपराध ज़रूर कम हो सकते है। मैं और मेरी दोस्त प्रियंका, हम दोनों हमेशा साथ ही प्रदर्शन में गए, उसे भी उस दिन बहुत चोट आई थी। खैर.... ये सब हमने अपनी उस अनजान, हमउम्र दोस्त के लिया किया था, जो उस वक़्त ज़िन्दगी और मौत की लड़ाई लड़ रही थी... हम भी उसके लिए लड़ रहे थे। हाँ, ये बात अलग है कि वहाँ भी कुछ उत्पाती लोग आ गए थे जिस कारण आन्दोलन/प्रदर्शन ने कुछ और ही मोड़ ले लिया। लेकिन इतनी बातें कहने का मतलब ये था कि हम वहाँ भी सुरक्षित नहीं थे। एक औरत के लिए सब जुटे थे, एक औरत के लिए मांग हो रही थी, लेकिन कुछ विशेष प्रकार के eve-teaser वहाँ भी मौजूद थे।
आमतौर पर नारे लगाने के लिए हम सर्कल बनाकर बैठते थे, जहां सभी एक दूसरे से अनजान होते थे। उसमे कई बार कोई लड़का किसी लड़की से चिपक कर बैठने की कोशिश करता। बुरा तो लगता था, पर हम सब किसी और मकसद से वहाँ जुटे थे। एक बार सही से बैठने को बोलकर चुपचाप बैठे रहना ही सही लगता था। हाथो में प्लेकार्ड लेकर कई शाम हम सफदरजंग अस्पताल के बाहर भी खड़े रहे। अस्पताल के ठीक सामने चौड़ी सड़क है, इसलिए अस्पताल से लगे सर्विस लेन में ही पूरी भीड़ इकठ्ठा होती थी, जहां लाइट भी सही ढंग से नहीं होती थी। वहां भी मौके का फायदा उठाने वाले पीछे नहीं रहे, क्यूंकि भीड़ में ज़्यादातर लडकियाँ और महिलायें होती थी.. छूकर निकल जाना और कमेंट पास करना तो आम बात थी। वैसे एक लड़की ने अच्छी डांट पिलाई थी।

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दिल्ली आये हुए ज्यादा दिन नहीं हुए थे मुझे, मेट्रो-बस का चक्कर भी ज्यादा समझ नहीं आता था। राजीव चौक (एक इंटरचेंज स्टेशन, जहां भेड़ो-बकरियों की तरह लोग हांके जाते है) उतरना था मुझे, तब लेडीज कोच नहीं हुआ करता था। राजीव चौक की हालत को देखकर ही समझा जा सकता है, शब्दों में बताना थोड़ा मुश्किल है। कुछ गिराए या खुद गिरे-संभले बिना अगर किसी दिन मेट्रो board या de-board कर ली, तो उस दिन किला-फतह। उतरने वाले लोग चाहते है हम सबसे पहले उतरे और चढ़ने वाले लोग चाहते है उतरने वाले लोग गए भाड़ में, भैया पहले तो हम चढ़ेंगे। खैर मेट्रो और इस स्टेशन का भी अपना एक अलग ही charm है।
हाँ तो मैं राजीव चौक पहुँचने वाली थी। तमाम यात्रियों की तरह मेरी भी इस स्टेशन पर उतरने की पूरी कोशिश थी। लेकिन चढ़ने वालो के रेले ने मुझे उतरने तो नहीं ही दिया, उल्टा धक्के खा-खा के मैं पीछे पहुँच गयी, फिर निकलने की कोशिश की लेकिन तब तक मेट्रो का दरवाज़ा बंद हो चुका था, मेट्रो आगे बढ़ चुकी थी। और मैंने जोर से चीख के कहा था.. तमीज़ नहीं है लोगो को। ये सब नार्मल था, बड़ी बात नहीं थी.. थोड़ी देर बाद इस वाकये पे हंसी ही आती, लेकिन कुछ अजीब तब महसूस हुआ जब मेरे ठीक पीछे खड़े एक अधेड़ उम्र के अंकल जी टाइप "पुरुष" ने मुझे जोर से दबाया, इतना जोर से कि मुझे उनके अंग महसूस हो रहे थे। भीड़ में गलती से टकराना-धक्का लगना एक बात होती है, लेकिन ये कुछ ऐसा था जो जान बूझकर किया जा रहा था। मैं झट से मुड़ी, उनकी और देखा.. किसी तरह थोडा अलग हटी.. air-conditioned मेट्रो में मैं पसीने से तर-बतर थी.. शायद कांप भी रही थी, किसी ने देखा-समझा नहीं था इस बात को। इतने में अगला स्टेशन बाराखम्भा रोड आ गया, कुछ अच्छे लोगो को ये मालूम चल चुका था कि मैं एक स्टेशन आगे आ गयी हूँ, इसलिए उन्होंने मुझे गेट तक रास्ता दिया और मैं स्टेशन पर उतर गयी। कुछ समझ नहीं आ रहा था, सीढियों तक पहुँचते-पहुँचते मेरी आँखों में आंसू थे, वहीँ बैठ गयी एक बार को लगा क्यूँ निकल कर आ गयी मैं मेट्रो से, ऐसे इंसान को वहीँ २-४ लगाने थे.. थोड़ी देर बाद खुद नार्मल हुई फिर आगे बढ़ी..लेकिन उस वक़्त कुछ समझ नहीं आया था।
इस वाकये के तकरीबन एक साल बाद मेट्रो में लेडीज कोच की सुविधा हुई, उस रोज़ न्यूज़ सुनकर मैं बहुत खुश थी। लेकिन लेडीज कोच और जनरल कोच के बीच वाले खोपचे में खड़े मर्दों की निगाहें दायें-बायें ना होकर लडकियों की तरफ ही मुड़ी रहती है और scanning चालू। ...तब लगता है बहुत सुधार की ज़रुरत है।

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सड़क पर चलते वक़्त कुछ ज्यादा ही सावधानी बरतनी होती है। बाइक वाले तो कमेंट पास करके निकल ही जाते है, और सड़क किनारे खड़ी हर कार से डर लगता है, ३-४ फुट की दूरी बनाकर चलना ही सही लगता है.. चाहे पास ही में पीसीआर वैन खड़ी हो। कमेंट पास करते और इशारे करते "पुरुषो" को इग्नोर करना ही सही लगता है। कई केस ऐसे भी हुए है, जहाँ लड़की के पलटकर जवाब देने के बाद उसके साथ और ज्यादा बदसलूकी हुई है। ये तो बाहर संभल कर रहने की बात थी, एक बार हमारे घर में कुछ मरम्मत का काम कराने हमारे landlord दरवाज़े पर आ गए, मैंने दरवाज़ा नहीं खोला कह दिया, घर में कोई बड़ा नहीं इसलिए अभी काम नहीं करवाना। बाद में भिड़ गए, कहने लगे काम करवा लेते मैं बैठ जाता.. मैंने कहा,"मैं आपको भी नहीं जानती, इसलिए दरवाज़े के अन्दर नहीं ले सकती, काम अगले हफ्ते होगा।"

कई बार हर किसी पे शक़ होता है। घर के बाहर और घर के अन्दर अपनी सेफ्टी खुद करनी पड़ती है। लेकिन फिर वही बात हर रोज़ बैग में अपने साथ मिर्ची पाउडर, पेप्पर पाउडर और चाकू लेकर निकलने के बावजूद भी हम सुरक्षित महसूस नहीं करते।

 

Tuesday, August 20, 2013

हैप्पी राखी भैया

इस बार सोच रही थी कि राखी के शुभ अवसर पर मैं अपने एकमात्र एकलौते अक्की भाई को क्या दूं! सोचते-सोचते सोच में आ गयी बहुत सारी बातें, ढेर सारी यादें।
भैया के कान्वेंट में पढ़ने के कारण बचपन में हम दोनों को साथ रहने का ज्यादा मौका नहीं मिला। जब थोड़े बड़े हुए तो दोनों की उम्र और सोच के अंतर ने मुश्किल खड़ी कर दी। भैया अपनी उम्र से ज्यादा समझदार और परिपक्व हो गया, लेकिन दिक्कत तब आई जब वो मुझसे भी यही समझदारी और परिपक्वता की उम्मीद करता रहता था।  खैर, हम दोनों लड़ते-झगड़ते, एक-दूसरे को चिढ़ाते-रुलाते बड़े हो गए।
अब जब कुछ सालो से हम दोनों दिल्ली में साथ रहने लगे तो गज़ब के मजेदार पल हमने बिताए। हमारी बाइक राइड्स, रोड ट्रिप्स, वीकेंड के मज़े, मेरे हाथ की जली सब्जी, मोटी रोटियाँ, भैया के हाथ की सुपर टेस्टी टमाटर की सब्जी, फ्रिज पे लगे हाथ के निशान के लिए भैया की चिकचिक और पता नहीं क्या-क्या!! ऑफिस से वापस आने के बाद मेरा ये कहना, "...भैया, इंडिया गेट चलो ना."  फिर भैया का कहना "अभी????" तब भैया का चेहरा देखने लायक बन जाता था।
रोज़ रात को ऑफिस से लौटकर कार की websites एक्सप्लोर करना और कहना ये देखो इसमें ये टेक्नोलॉजी है.. इसमें ये फैसिलिटी है। ...फ़ाईनली तुमने चार चक्का खरीद ली, उसके बाद हमारी ट्रिप्स लगाना, और ढेर सारे मज़े करना...

धीरे-धीरे भैया का कामयाब होना, आगे बढ़ना, मुझसे ऑफिस की बातें discuss करना, घर में वो dice के डिजाईन वाला स्टूल और रेस्ट वाला मोढ़ा लाना, नए परदो के लिए पूरा तिलक नगर मार्किट छान मारना, घर सजाना, तुम्हारे एक रूम के फ्लैट को मेरे चुटूर-पुटूर सामान से भर देना और तुम्हारा कहना कि "कितना सामान हो गया है घर में, अब शिफ्ट करने के टाइम बड़ा ट्रक बुलवाना पड़ेगा"

...सेंटी बातें हो गयी न !

वैसे सबसे ज्यादा मज़ा तब आता है जब भैया टूथपेस्ट के ट्यूब को देखकर गुस्सा करता है (टूथपेस्ट को हमेशा बीच से दबाने की आदत रही है मेरी) और मेरी इस आदत से भैया हमेशा ही त्रस्त रहता है। वैसे भैया भी मुझे irritate करने में पीछे नहीं रहा, जब तक एक बार रुला नहीं ले इसका मन नहीं भरता।

आज भी हर सुबह जब भैया फ़ोन में Temple Run और BikeRaceTFG/Subway Surfers खेलता है, तो मोबाइल हिलाकर गेम खराब करने में बड़ा मज़ा आता है.. हाहाहा ! और हर सुबह दूध वाली चाय के बाद ये कहना कि "नन्ही, तुम लेमन टी बनाने वाली थी, बनाओगी क्या!"

बहुत सारी छोटी-छोटी बातें है हमारी, हम लड़े-झगडे, ५ दिन तक बात नहीं की, गुस्सा हुए, लेकिन प्यार भी एक-दूसरे से उतना ही किया।  ऐसे ही हँसते-खेलते-लड़ते-झगड़ते-मज़े करते रहे हम दोनों, यही दुआ है :) रक्षाबंधन की शुभकामनाएँ !

Saturday, August 3, 2013

बोलती 'चुप'...!

'चुप'

कहने को तो कितनी शांत है ये, लेकिन भीतर ही भीतर कितना शोर करती रहती है.
अपनी बात पर अडिग, कभी जिद्दी, कभी चंचल, कभी ख़ामोश, कभी दौड़ती, कभी ठहरती…
कुछ पाती, कुछ खोती... अपनी यादों के संग कुछ हंसाती तो कुछ रुलाती.

'चुप'

कभी मुझ जैसी अल्हड़, नटखट, चुलबुली हो जाती है,
तो कभी तुम जैसी शांत और स्थिर.
कभी सागर तो कभी नदी.. कभी दरिया तो कभी सूखे कुएँ का बचा पानी.

'चुप'

तुम चुप क्यूँ नहीं रहती ?
कितना बोलती हो तुम !
मेरे दिमाग में.. मेरे मन में हमेशा उथल-पुथल मचाती हो तुम !
मेरे साथ ही ऐसी हो या
सब के साथ ऐसा करती हो तुम...!

'चुप'.....

Wednesday, July 31, 2013

बारिश का बोसा ...

आज मौसम का मुझपर रसूख हुआ कुछ ऐसा...
छूकर सावन की बूंदों ने मुझे,
कुछ लिखने को कहा है खुद जैसा.. ।


बारिश के बोसे से याद आये ज़िन्दगी के कुछ बोसीदा वरक़*..
झूमा आसमान, गाने लगी हवाएं और
आहिस्ते से कुछ कहने लगा मेरे मन का हर्फ़ ।

इसकी हर एक बूँद के बेगुनाह लम्स** से खिल जाती हूँ मैं..
इसकी शरारत भरी संगत में और भी निखर जाती हूँ मैं ।

हर बार महसूस होता जैसे कोई हबीब^ पैग़ाम लेकर आया है ये..
पर जब मचल कर जाती हूँ इसकी ओर,
तो चुपचाप मुस्कुरा कर मुझे अपनी नज़रो में भर लेता है ये ।

इस मुएँ की साज़िश में हर बार फंस जाती हूँ मैं..
आह भरकर इसके सामने रहने को मजबूर हो जाती हूँ मैं ।

कुछ-कुछ  बेतरतीब सा लिखने को कहा था इसने ऐसा..
मैंने भी शब्द ढाले है उसके ही अंदाज़े-बयाँ जैसा...।


आज मौसम का मुझपर रसूख हुआ कुछ ऐसा...
छूकर सावन की बूंदों ने मुझे,
कुछ लिखने को कहा है खुद जैसा.. ।



*  बोसीदा- पुराना वरक़- पन्ना
**लम्स- स्पर्श 
^  हबीब- प्यारा 

Friday, July 12, 2013

आवाज़ेपा...

हाँ..
    सुन लिया मैंने वो जो तुमने नहीं कहा है अब तलक..
    जान गयी हूँ वो जो तुमने छुपा रखा है अपने सीने में..
    समझ लिया मैंने वो जो तुमने रखा है बस अपने तलक...
    लेकिन शायद तुम भूल गए,
    तुम्हीं ने कहा था कि.. सोच की अदला-बदली ज़रूरी है..
                           अब अपनी बात से खुद ही मुकर रहे हो..
    खुद को पिंजरे में क्यूँ कैद कर रहे हो..!
    खुद के बनाए जाल में क्यूँ फंस रहे हो...!
 

हाँ,
     मैंने सुन लिया है वो.. लेकिन फिर भी इक बात कहनी है तुमसे

     तुम चाहते हुए भी खुद को मुझसे अलग नहीं कर सकते
     और मैं ना चाहते हुए भी तुमसे जुड़ती जा रही हूँ..

     इस आगाज़ का अंजाम नहीं मालूम मुझे..
     लेकिन अब तुम्हारे और करीब होती जा रही हूँ मैं..
     तुम्हे इल्म न हो इस बात का ऐसा मुमकिन नहीं..
     लेकिन तुम्हारी आवाज़ेपा* अपनी धडकनों में महसूस करती जा रही हूँ मैं..

हाँ..
     सुन लिया मैंने वो जो तुमने नहीं कहा है अब तलक...



* पाँव की आहट
 

Monday, June 17, 2013

नज़र का फ़र्क !

ऋचा आज बहुत जल्दी में थी... घर से निकलने में ही उसे देर हो गयी थी और ऊपर से सुबह-सुबह मेट्रो की भीड़...लेडीज कोच तक पहुँचने में २ मिनट की और देर हो जाती...इसलिए सीढियों से चढ़ते ही वो जनरल कोच में एंटर कर गयी..सामने वाली सीट के सामने खड़ी हो गयी..सामने वाली सीट पर सारे मर्द ही थे...जिनमे से ऋचा के ठीक सामने वाले व्यक्ति ४०-५० वर्ष के रहे होंगे..मेट्रो चली, रोज़ की तरह ऋचा ने अपने बैग से हेडसेट्स निकाली और गाने सुनने लगी. कुछ देर बाद उसे एहसास हुआ की सामने बैठे व्यक्ति उसे घूर रहे है..पहले तो उनकी नज़रें ऋचा की जीन्स की ज़िप के पास ही अटकी रही...फिर उपर से नीचे उसे ऐसे देख रहे थे मानो स्कैन कर रहे हो..ऋचा ने इधर उधर देखा लेकिन भीड़ इतनी ज्यादा थी की वो अपनी जगह से हिल तक नहीं पायी..बहुत अजीब स्थिति थी उसके लिए..शायद आसपास बैठे लोगो को आभास हो रहा था की लड़की uncomfortable है लेकिन किसी ने उठकर उसे सीट देने की ज़हमत नहीं की..ऋचा की मजबूरी थी वही खड़े रहना.. अपने गंतव्य स्टेशन पे पहुँचने के बाद ही उसकी जान में जान आई.

थोड़ी देर तक ऋचा कुछ समझ ही नहीं पायी..हालांकि ऐसी स्थितियां पहले भी हुई थी, लेकिन तब लेडीज कोच नहीं था..लेडीज कोच की सुविधा होने के बाद से ऋचा ने हमेशा उसी में सफ़र किया. जब तक की साथ में कोई मेल ना हो..
उसे ज्यादा बुरा इस बात का भी लग रहा था कि १६ दिसम्बर वाली घटना के बाद से ही समाज और लोगो की सोंच को बदलने की बाते/कोशिशे होती रही है..लेकिन लोगो की सोच कहीं से भी अच्छी होती नहीं दिख रही.. मनोवृति बदलने की सबसे ज्यादा ज़रुरत है. ऐसा नहीं की सारे मर्दों की सोच एक जैसी होती है...उसे याद है जब कई बार वो अपने दोस्तों के साथ होती है, तो जनरल कोच में बैठे इन्ही में से कुछ पुरुष उसे झट अपनी सीट देते है.

अच्छी नज़र और बुरी नज़र इसकी पहचान हर लड़की/औरत को होती है और इसका फ़र्क करना भी वो अच्छे से जानती है. "घूरना" एक राष्ट्रीय आदत है लेकिन पिछले दिनों से जो बयार चली...जो बाते चली, उससे कुछ सकारात्मक सोच  आने की आशा बंधी थी..और फ़िलहाल मनोवृति को सुधारना सबसे ज़रूरी हो चला है.  

Tuesday, May 21, 2013

अनकही...

अक्षरा आज बड़े दिनों बाद अकेली बाहर निकली थी..मॉल गयी..शॉपिंग की...इधर-उधर घूमी..बहुत खुश थी वो... अचानक शिवानी टकरा गयी.. कॉलेज की दोस्त...शायद अक्षरा अपनी शादी के बाद आज उस से मिल रही थी..दोनों गले लग गयी. पास ही के एक कॉफ़ी शॉप में बैठ, हो गयी नयी-पुरानी बातें शुरू.. अक्षरा के बेटे का स्कूल से आने का टाइम हो रहा था, इसलिए उसने शिवानी से कहा, "सिर्फ 15-20min ही होंगे मेरे पास यार..फिर कभी प्लान बना मिलने का..खूब गप्पे मारेंगे"

शिवानी ने कहा, "हाँ यार ज़रूर, वैसे तू सागर की शादी में तो आ रही है ना!"
चहकती अक्षरा थोड़ा थम सी गयी, कुछ सोंचा और फिर झट से एक छोटी सी स्माइल अपने चेहरे पे लाते हुए कहा, "सागर शादी कर रहा है..वाह! कब है शादी? लड़की कौन है? बहुत ख़ुशी हुई यार. हाँ कोशिश करूंगी शादी में आने की. अच्छा अब निकलती हूँ..स्कूल की छुट्टी का टाइम हो रहा है. तुम आओ कभी घर पे..." सारी बाते एक ही सांस में कहते हुए अक्षरा कुर्सी से उठने लगी.

शिवानी ने धीरे से कहा, अब भी इतनी uncomfortable हो उसका नाम सुनकर!"
अक्षरा: "नहीं यार बस लेट हो रहा है...मैं अपनी फॅमिली में बहुत खुश हूँ."
शिवानी, "खुश रहा कर सबको ख़ुशी होगी.. और हाँ सागर शायद तुम्हारे घर शादी का कार्ड लेकर जाए.."

अक्षरा ने फिर वही मुस्कान पहनी, शिवानी के गले लगी और निकल गयी. कॉफ़ी शॉप से स्कूल और स्कूल से घर तक आते-आते अक्षरा यादों में ही डूबी रही..सागर और वो..कॉलेज के दिन..दोस्ती हुई और फिर प्यार..कॉलेज के बाद दोनों की जॉब भी लग गई.. अक्षरा ने तो सागर को शादी के लिए प्रोपोज भी किया था..लेकिन सागर ने ही मना किया..कहा था घर वाले लव मैरिज के लिए नहीं मानेंगे..करिएर को लेकर सीरियस अक्षरा अपनी जॉब तक छोड़ने को तैयार थी, लेकिन सागर फिर भी नहीं माना था...कुछ दिनों बाद अक्षरा की शादी हो गयी..और उसने अपने इस नए जीवन की शुरुआत कर ली...और सागर सिर्फ एक याद बन कर रह गया था..अब जब शिवानी ने बताया की सागर शायद उसे शादी का कार्ड देने आये..तो वो समझ नहीं पा रही थी की कैसे रियेक्ट करेगी..फिर खुद से ही कहने लगी..रियेक्ट क्या करना मैं नार्मल रहूंगी...आखिर मैं अपनी लाइफ में बहुत आगे बढ़ चुकी हूँ..खुश हूँ..और दुआ है की सागर भी खुश रहे..

2-3 दिन यूँ ही बीत गए...तीसरे दिन सागर शादी का कार्ड लेकर अक्षरा के घर पहुँच गया..बाकी दोस्तों से address  पता कर लिया था, इसलिए वो बिना इन्फॉर्म किये ही पहुंचा था.. छुट्टी का दिन था सो घर पे अक्षरा अपने पति और बेटे के साथ थी...दरवाजा खुला सागर आया..अक्षरा ने सारी पुरानी भावनाओं की गठरी बनाके साइड में रखी फिर अपनी वही टिपिकल स्माइल के साथ सागर को हेल्लो बोला और अपने पति से कहा, ये मेरा कॉलेज फ्रेंड सागर है..अक्षरा के पति ने भी अच्छा वेलकम किया और हलकी फुल्की बातचीत करने लग गया.

इतने दिनों बाद सागर को अपने सामने देख अक्षरा को बहुत कुछ याद आ रहा था...मन कर रहा था की सागर की आँखों में आँखें डालकर बातें करे, लेकिन वो बहुत ही नार्मल रही..शादी कब है..कहाँ है..लड़की कैसी है..सब बातें बड़े आराम से पूछ रही थी वो...पति को ऑफिस से फ़ोन आ गया और वो साइड में चले गए...अचानक उसे लगा की वो अब टूटने वाली है..फेक स्माइल देते देते थक चुकी थी वो... फिर भी नार्मल बने रहने का नाटक करते हुए अक्षरा स्माइल करती रही..सागर भी अकेले में कुछ कहना चाह रहा था..अभी वो शुरुआत ही करने वाला था की अक्षरा समझ गयी और उसने बात घुमा कर फिर से शादी की बात शुरू कर दी..अच्छा ये बताओ तुम्हारी शादी का मेन्यू क्या है क्या-क्या होगा खाने में..बहुत मज़ा आएगा यार..सारे पुराने दोस्त मिल लेंगे..बड़े दिनों बाद सब एक साथ जुटेंगे.

सागर ने भी महसूस किया कि अक्षरा बेहद खुश है...अब पुरानी यादो को खंगाल कर कोई फायदा नहीं...हालांकि वो बस सॉरी कहना चाह रहा था..लेकिन शायद अब इसकी भी ज़रुरत नहीं..अक्षरा खुश है यही काफी है..अब वो भी अक्षरा और उसके पति से नार्मल बाते कर बस निकलने ही वाला था.


"कुछ रिश्ते यूँ ही बीच रास्ते में छूट जाते है..बिना चाहे..बिना कुछ कहे..कोई जिम्मेवार भी नहीं होता इसे तोड़ने का..बस हालात साथ नहीं देते...सब अपनी दुनिया में आगे बढ़ते है..खुश रहते है..लेकिन एक चाह हमेशा बनी रहती है कि, काश! काश उस वक़्त... वक़्त और हालात ने हमारा साथ दिया होता.."

 

Wednesday, May 8, 2013

रात के ख़्याल

*
फिर इक नयी रात है..

एक ख्याल है..इक बात है..

कोई चेहरा है धुंधला सा..

कुछ जाना सा पहचाना सा..

आज ये सब मेरे साथ है..

कभी मन में कभी दिल में..

कभी तकिये के पास तो कभी धडकनों में...

बस इतनी सी ही तो बात है...

लेकिन महसूस हो रहा कुछ "ख़ास" है...

                 ....कुछ "ख़ास" है...!!




**
ज़िन्दगी दिखाती है राहें बहुत..

खड़े करती है सवाल भी बहुत..

किस राह जाऊं...किस दिशा जाऊं...

इसके अनगिनत सवालों के जवाब कहाँ से लाऊं...

कर देती है कई बार बड़ा बेचैन...

तभी तो ये ज़िन्दगी तड़पाती है बहुत...

Sunday, May 5, 2013

बैठे-बैठे

कुछ देर मेरे पास आओ तो सही..

वो दबी सी आस जगाओ तो कभी...

जहाँ की बातें तो होती ही रहेंगी...

कभी हमसे नज़रें मिलाओ तो सही...

ये वक़्त थम जाएगा जिस दिन हम ना मिलेंगे...

तुम्हारे होंठ सिल जायेंगे जब हम ना दिखेंगे...

शायद कभी पुकारो भी तो हम ना लौटेंगे...

इसलिए वक़्त की आबरू रख लो..

अपने तेज़ कदमो की आहट सुनाओ तो कभी...

कुछ देर के लिए ही सही, मेरे पास आओ तो सही....

Tuesday, April 9, 2013

जादूगर...

सिर्फ अपनी बातों से कर गया मुझपे ऐसा जादू...
कर लिया है मेरे मन को भी अपने ही काबू...
किस दिशा का है,कहाँ से आया है मेरे ख्यालो में...
मैं पागल घिरती जा रही अपने ही सवालों में ..
ऐसा भी कोई जादूगर होता है क्या !
दूर से ही कर दिया मुझपे ये कैसा टोना..
खुद भोला बन बैठा है बेखबर....
और इधर मैं हो रही हूँ बेकाबू..

Monday, April 8, 2013


दिल की चौखट पर कोई दस्तक सी है...शायद कोई धड़क रहा आसपास ही है...

बस इस बार आओ के जाने का कोई बहाना ना हो तुम्हारे पास...
 
सब भूलकर सब छोड़कर बैठे रहो मेरे साथ....
 
मेरी खूबसूरती में...मेरी बातों में कोई कमी ना निकालना अबकी बार...
 
कुछ ऐसा करना की बात और साथ खूबसूरत बन जाए..


फिर रूठ कर जाने का कोई बहाना न बचे अबकी बार....

Saturday, April 6, 2013

दोस्ती और प्यार

डिस्क्लेमर: ये कहानी पूरी तरह से काल्पनिक है. इसका किसी भी व्यक्ति, जगह या घटना से सम्बन्ध नहीं है.


अनन्या - प्लीज ! ये फ्रेंडशिप मत तोडना..दोस्तों के मामले में मैं थोड़ी unlucky हूँ.

सागर - क्यूँ ! मैं  हूँ ना तुम्हारा दोस्त..इतना सेंटी मत हो जाओ.

अनन्या - वो तो तुम हो ही..लेकिन हमेशा ऐसे ही रहना..पता है तुम्हे, तुम्हारी बातें  हमेशा मुझे खुश कर देती हैं..

सागर - बोल तो ऐसे रही हो, जैसे मैं तुम्हारा boyfriend हूँ... कहीं तुम्हे मुझसे प्यार तो नहीं हो गया !!

अनन्या - पागल हो क्या ! ainvayi  प्यार हो जाता है क्या ! और मुझे इतनी जल्दी प्यार नहीं होता..समझे !

सागर को लगा जैसे किसी ने उसकी बेईज्ज़ती कर दी..(वह सोंचने लगा)  आज तक लडकियाँ मुझ से बात करने के लिए आतुर रहती थी...ये अनन्या किस खेत की मूली है, जो सीधा मुझे रिजेक्ट कर रही है.


{ एक छोटी-सी बहुत बचकानी कहानी है ये..लेकिन कहना इतना ही था की "दोस्ती" और "प्यार" दो अलग चीज़े है... दोस्ती में प्यार हो सकता है और प्यार में दोस्ती हो सकती है...लेकिन दोनों को एक ही नाम से पुकारना बहुत गलत है...दोस्ती-प्यार के बीच में फैसला करते करते कहीं हम अच्छे दोस्त तो नहीं खो देते ना!  दोस्तों को भी तो हम जान से ज्यादा प्यार कर सकते है }

 

Wednesday, March 20, 2013

कवितायें


    "अपनी परिपक्वता को कभी मेरी मासूमियत की चाशनी में घोल के तो देखो...
     
     
    अपनी समझदारी को कभी मेरे पागलपन के साथ कैद करके तो देखो....
     
     
    मेरी बेवकूफाना, बचकाना, उत्साही हरकते सिर्फ तुम्हारे लिए है...
     
     
    अपनी रम्यता को कभी मेरे भोले दीवानेपन के साथ संजो कर तो देखो.... "
     
     
     
     
    " यूँ तो रात अकेली होती है...
    लेकिन इस रात में बातें अलबेली होती है.
    रात का सन्नाटा कई यादें साथ लाता है..
    कुछ पुरानी, कुछ नयी, कुछ अनकही, कुछ अनसुनी का एहसास लाता है.
    ये यादें दिल को कभी उदास करती है..
    तो कभी मेरे चेहरे पे एक मीठी सी मुस्कान छोड़ जाती है...
    आती रहो ऐसे ही रात तुम...करती रहो ढेर सारी बात तुम..
    उसी मासूमियत उसी रूमानियत के साथ,
    रात! तुम्हार इंतज़ार हर रोज़ होता है..."

Tuesday, March 19, 2013

यूँ ही......


  1. ऑटो वाले ने अचानक स्पीड स्लो कर दी,पीछे की सीट पे बैठे दोनों करीब गए..उसने झट से रीतू का हाथ पकड़ लिया..घर पहुँचने की जल्दी किसे थी !
  2. आज तुम्हे सपने में देखा..वहाँ भी मुझसे नज़रें चुरा रहे थे तुम..अच्छा! याद आया..अब तुम किसी और के 'नूर' हो ना...
  3. छत पे कपडे सुखाते वक़्त सौम्या ने चिढ़ते हुए कहा,"हमेशा हमलोगों को ही ब्रा तौलिये के नीचे क्यूँ सुखानी होती है"..माँ और दादी गेहूं पसारते हुए एक-दूसरे के चेहरे पे जवाब तलाशती रहती गयी
  4. वो जो पहली बारिश की बात बतायी थी तुमने...उसका क्या??
    अब तो ये बारह महीने आती है... बिल्कुल तुम्हारे याद की तरह... कभी भी......
  5. दिवाली की शाम उसके दुपट्टे में लगी आग ने पल भर में ही उसके पूरे शरीर को लपटों में ले लिया...आग लगी थी या....
  6. मैंने कहा था "साथ चलेंगे", लेकिन वो तो मुझे मसल कर आगे निकल गया और अपना जीवन खुशहाल कर लिया..साथ चलना क्या, उसने तो साथ दिया भी नहीं...
  7. माँ कहती थी.."आंसू पोंछ, हिम्मत कर, बनेगी तकदीर, मेहनत कर" -- बस ये सोंचते ही महिमा उठकर खड़ी हो गयी..आगे बढ़ने लगी...
  8. अटारी बॉर्डर से फैज़ के जिस्म ने लाहौर के लिए ट्रेन तो ले ली थी लेकिन उसका दिल भारत में ही रह गया था.. अमृतसर में दिखी उस 'हूर' के पास शायद... 
  9. कार से जैसे ही मीता के ससुर 'डोसे' का आर्डर देने उतरे..मीता ने झट से अपने पति को चूम लिया...दोनों घर की टेंशन दूर करने लगे...
  10. खफ़ा हो मुझसे...बेवफाई मैंने तो नहीं की थी...माँगा था तुम्हारा साथ...दुआएं हमने भी तो की थी...
  11. वो पूछते है मुझसे तबियत मेरी..क्या बताये की हमें तो साँस भी उनकी एक झलक से आती है...
  12. अपने हाथो की लकीरों को हर किसी को यूँ दिखाया नहीं करते...कोई ढूंढ लेगा अपना रास्ता इसमें....
  13. पहली बार दोनों ऑनलाइन मिले थे...लेकिन बुकफेयर में जब अचानक दोनों टकराए..... और अवनी ने हाथ मिलाया तो वो अवनी का हाथ ही नहीं छोड़ पाया...बस एकटक देखता रह गया... अवनी ने हाथ की ओर इशारा किया ...
  14. क्यूँ दूरियों का बेमतलब लुत्फ़ उठाते हो...
    कभी बेवजह फासले मिटाने की तो सोचो...
  15. वो मुझे इतना चाहने लगेगा मालूम न था.. एहसास हुआ होता तो नज़रें ही ना फेरती...