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Friday, May 30, 2014

अब्र और बूंद

आज बूंदों से कर ली जी भर की बातें
जो कुछ कहना था तुमसे
कह दी वो सारी बातें
वो भी कुछ कहानी कहती रही
झूम कर बरसती रही
तड़प के गिरती.. बिलखती
कुछ कहती फिर हल्के से मुझे चूमती

कुछ दिनों पहले की बात है
अब्र का एक टुकड़ा भी
आसमान में तुम-सा
ख़ामोश और सहमा पड़ा था
कभी-कभी हल्का गरजता
बूंदों से कुछ कहता
बूँदें रूठकर रोती हुई
ज़मीं पर चली आती थी

अब्र बूंदों की बात नहीं समझ पाता
बूंदें अब्र की ख़ामोशी नहीं पढ़ पातीं
अब्र गरज कर आँखें दिखाता रहा
बूंदें चुपचाप बरसती रही

अब्र भी टूटा है आज
बिखर कर ज़मीं पर गिरा है आज
बूंदों की तड़प समझ पाए शायद !

अब ढूंढ रहा दर-बदर
बूंद को हर इक पहर
बेख्याली में ये एहसास तक नहीं
बूँद को ढूँढने में
अब्र अब ख़ुद बूँद हो चला है...

अब्र* - cloud

Friday, May 16, 2014

बकबक - ३

कोई नहीं समझता आपकी बात को.. आपकी भावनाओं की कद्र भी नहीं करता कोई.. जिसके लिए भावनाएं है, वो ही नहीं समझता आपकी बात को । उनके सर में दर्द हो तो हमें तकलीफ़ होती है, हम चाहे तबियत की किसी भी हालत में हो, उनसे कोई उम्मीद नहीं कर सकते । हमारी गलती यही है कि हम जिसको अपनी सोच में रखते है, वो कभी हमारे मन का कुछ कहे..बस ये उम्मीद लगा ली । जैसे ही उन्हें सामने देखते है, लगता है कितनी ज़ोर से गले लग जाएँ.. सब बातें कह जाएँ । कभी-कभी हम दिल की वजह से बहुत मजबूर हो जाते है । क्यूँ किसी को इतना अपना समझ बैठते है ? क्यूँ किसी को ख़ुद में शामिल कर लेते है ? ये मालूम होते हुए भी कि सामने वाला ना तो आपकी बात समझेगा.. और अगर समझ भी ले तो अपने सुरक्षा घेरे से कभी बाहर नहीं आएगा । सब को अपनी परवाह होती है ..कोई किसी की परवाह नहीं करता । अंत में, हार हमारे दिल की ही होती है.. हम ख़ुद से हार जाते है । और जब कोई नहीं सुनता, कोई नहीं समझता तो ऐसे ही बकबका देते है अपनी डायरी में या ब्लॉग पर ।
तबियत ज़्यादा खराब है..पिछली पूरी रात सो नहीं पाई थी.. आज दिन भर सोती रही.. रात को भी बहुत सोना है । भारत जीत गया है आज.. पर मैं ख़ुद से ही हार गयी हूँ ।

Wednesday, May 14, 2014

डायरी का एक पन्ना - २

कुछ लिखना था
डायरी का पन्ना पलटा
पुराने लिखे नज़्म पढ़े
कुछ नया लिखने की कोशिश की
और फिर डायरी बंद कर दी ।

फिर कुछ धुंधला सा याद आया
एक नया कोरा पन्ना निकाला
कलम पकड़ी
लम्बी साँस ली
पर चुप्पी ही रही ।

लगता है कलम इन दिनों
डायरी के पन्ने से
नाराज़ चल रही है ।
कहना चाहती है कितना कुछ
पर उसे देखकर
ख़ामोश हो रही है ।

इसकी शैतानी ऐसी है कि
लिखने के बहाने
हर बार पन्ने को
चूमकर निकल जाती है ।
लिखना चाहो तो
बस डॉट बनता है एक
ख़याल वहीँ दफ़न हुए जा रहे है
उफ्फ्फ़ की आवाज़ भी आ रही है
एक बूँद भी आकर
अभी गिरी है वहीँ ।
......

Sunday, May 11, 2014

आँखों देखी की बात

कुछ फ़िल्में मेरे अंदर इस कदर बैठ जाती हैं कि कई दिनों तक महसूस होता है, ये मेरी ही कहानी है.. मेरा ही हिस्सा है । कुछ ऐसा ही हुआ फ़िल्म "आँखों देखी" के साथ । २-३ हफ्तों पहले ये फिल्म देख ली थी, लेकिन जब पता चला कि ये फ़िल्म हैबिटैट फिल्म फेस्टिवल में स्क्रीन हो रही है तो दुबारा देखने से रोक नहीं पायी । फिल्म देखने से ज़्यादा रोमांच, स्क्रीनिंग के बाद होने वाले Q&A सेशन के लिए था ।
तय वक़्त पर पहुँच तो गयी, लेकिन एंट्री के लिए लम्बी लाइन में लगना पड़ा। जब तक अन्दर पहुंचे, तब तक पूरा ऑडिटोरियम भर चुका था और सारी सीट्स फुल (माने हाउसफुल) । वापस जाने का मन तो बिलकुल भी नहीं था, किसी तरह सेशन तक तो रुकना ही था । इसलिए पहले के दस-पंद्रह मिनट सबसे पीछे खड़े रहे और फिर जब दो-चार लोग कालीन पर ही बैठ गए तो मैं और मेरे भैया भी आराम से आलथी-पालथी लगाकर फिल्म का मज़ा लेने लगे । पहले देखी होने के बावजूद भी एक मिनट के लिए स्क्रीन से नज़र नहीं हटी और एक बात जो मुझे भी हैरान कर रही थी वो ये कि फिल्म को जितना पहली बार एंजॉय किया था, उससे कहीं ज़्यादा दूसरी बार देखने पर एंजॉय कर रही थी । गाने के वक़्त मेरे पैर हिल रहे थे, लिरिक्स और म्यूजिक में बात होती है तभी ऐसा होता है । सबसे पीछे बैठी थी इसलिए ज़ोर से हंसने पर कोई हिचकिचाहट नहीं हो रही थी । एक व्यक्ति बगल में आकर खड़े हुए थे और जब किसी सीन पर मैंने ठहाका लगाया, वो मुझे घूर रहे थे । बाद में पता चला, वो व्यक्ति फिल्म में रजत कपूर के सहयोगी रहे मनीष थे ।
ख़ैर, फिल्म के कई दृश्यों के बारे में बहुत कुछ लिखना चाहती हूँ, लेकिन अपनी अल्प समझ और शब्दों की ज़्यादा जानकारी ना होने की वजह से नहीं लिख पा रही हूँ । और शायद इसलिए भी कि जिन्होंने अब तक फ़िल्म नहीं देखी है, वो ज़रूर देखे । फिल्म में ये बात भी है कि कैसे एक अधेड़ उम्र का इंसान अपने आसपास की तमाम भ्रांतियों को तोड़ने के लिए निकल पड़ता है । इस सफ़र  में कुछ चेले भी मिल जाते है और कुछ पागल कहने वाले भी । खीझकर नौकरी छोड़ने के बाद भी, आमदनी का ज़रिया मिल ही जाता है। मतलब आसपास के नियम-कानून सब हमने अपने हिसाब से, अपनी सुख-सुविधा के लिए बनाया है । चाहे कुछ ना भी करो तो भी ज़िन्दगी चल ही जाती है । रोज़ की माथाफोड़ भागमभाग सब हमारी ही बनायी है ।  आख़िर में भ्रांतियों को तोड़ने की जद्दोजहद करता इंसान अपनी बेटी की शादी में उन्हीं सामाजिक-पारंपरिक रीतियों को निभाता नज़र आता है, जो कि सच के बिलकुल करीब है ।
रिव्यू/समीक्षा लिखने का अभ्यास तो नहीं है, लेकिन इस फ़िल्म ने मुझे इसके बारे में लिखने पर मजबूर कर दिया । एक वाक्य में कहूं तो इस फ़िल्म में दृश्यों और सिचुएशन को नहीं फिल्माया गया, बल्कि विचारों और मानसिकता को फिल्माया गया है और पर्दे पर बखूबी उतारा गया है ।

बहरहाल, फ़िल्म के दौरान भी तालियाँ गूंजती रहीं और फ़िल्म ख़त्म होने के बाद भी । अब रजत कपूर स्टेज पर आ गए थे और मैं पूरे excitement के साथ खड़ी होकर सुनने लग गयी । आते ही उन्होंने कहा - "I suspect many of you are here because you didn't want to pay for a ticket." और फिर ठहाके की गूँज ।
इसके बाद कई सवाल आते गए और फ़िल्म के लेखक और निर्देशक रजत कपूर सबका जवाब देते रहे । बस, फ़िल्म के एंड पर किये सवाल से वो आख़िर तक बचते रहे ।
फ़िल्म को लेकर मेरे कुछ अजीब से सवाल थे, इसलिए जब रजत कपूर साब स्टेज से उतर कर आये तब मैंने अपना सवाल पूछ लिया.. जवाब भी मिल गया । साथ में, मैंने जोड़ दिया , "ख़ासतौर पर आपको और वरुण ग्रोवर को ढ़ेर सारी बधाई ।" पता नहीं क्या था, उनकी आँखें चमक गयी और उन्होंने कहा, "yes,yes..I love him"
साथ में मैंने ये भी कह दिया कि "सर, मैंने ये फ़िल्म पहले pay करके देखी है और आज दुबारा देखी ।"

अब अगली फ़िल्म के लिए भीड़ बढ़ने लगी थी । फ़िल्म के लेखक और निर्देशक से छोटी सी मुलाक़ात करना बेहद अच्छा रहा । और कुछ नहीं तो दिल्ली ने ऐसे कई बेहतरीन लोगों से मिलने का मौका तो दिया ही है। 

मैं "आँखों देखी" के लेखक और निर्देशक से मिल चुकी थी ... आँखों से देख चुकी थी और ये बात मैं अपने 'अनुभव' से कह रही हूँ । :)

Friday, May 9, 2014

रात की बात...

रात ख़ामोश होकर भी
अनगिनत बातें कह जाती है ।

आता है कोई शायर
यूँ ही किसी रात
खानाबदोश सा
रात को ही सिरहाना बनाकर
उसके ही बिस्तर पर
तकिये का टेक लगाकर
रात के बदन पर
अपनी नज़्म पूरी कर जाता है ।
किसी खुदगर्ज़ आशिक़ की तरह
हर बार गुज़रते हुए
रात को अपनी
नज़्मों में सिमटा लेता है ।
कलम की बेबाकी और
डायरी के पन्नों की शोखी में
जिंदा लफ़्ज़ों के साथ
दफना देता है । 

क्यूँ ना तुम भी यूँ ही किसी रात
मेरे सामने बैठ जाते
अपने लिए ना सही
मेरी ख़ुशी के लिए आ जाते ।
बेसब्र रात कटती रहती
कोई नज़्म भी बढ़ती रहती
बच जाते हम-तुम
तो हम भी किसी डायरी में
किसी आवारा शायर की
ख़ूबसूरत नज़्म बनकर
दफ़न हो जाते
शायद थोड़ा-सा और जी पाते ।
------

Tuesday, May 6, 2014

मुझे जाने दो...

कितना आसान है न
तुम्हारे लिए ये कहना कि
तुम जियो अपनी ख़ुद की
बनायी दुनिया में,
वो बंजर है
        ...मुझे जाने दो ।

कितना आसान है न
तुम्हारे जमात के लिए
हम जमातों की बेतरतीब
लेकिन नाज़ुक सी
भावनाओं के साथ खेलना
अपना वक़्त संवारना
और कहना कि
          ...मुझे जाने दो ।

तुम्हें क्या पता
वक़्त-बेवक़्त तुम्हारी मौजूदगी
की बारिश के लिए ही तो
मेरे ख़्वाबों की दुनिया बंजर है
और तुम मेरी इस प्यारी सी
दुनिया में रहना ही नहीं चाहते
बस दम भरते रहते हो
            ...मुझे जाने दो ।

चले जाओ,
जाना ही है तो चले जाओ ।
मेरे शब्दों की तरह
मेरी दुनिया भी साधारण है
पर थोड़ी बेतरतीब है
तुम्हें कहाँ रास आएगी
अप-टू-डेट जो नहीं
साधारण है ... अति साधारण ।

अब ठहरने की बात ना ही करो
बाकी बातों की तरह
बाकी कहानियों की तरह
इस साधारण कविता को भी
अधूरी ही रहने देती हूँ
         ... मुझे जाने दो ।

...........

Sunday, May 4, 2014

बकबक - २

कभी-कभी रातें बहुत अच्छी लगती हैं.. और कभी-कभी रातें बहुत बहुत बहुत ज्यादा अच्छी लगती हैं । जब ऐसी लगती है, तब लगता है कि रात ख़तम ही ना हो.. बीते ही ना.. सुबह हो ही ना । बस पलकों पर ख़्वाबों का बोझ उठाये रखो और आसमान तकते रहो.. मेरा मतलब घर की सीलिंग । अच्छा था जब इतने ज्यादा शहर नहीं थे.. कम से कम ख़्वाब तो हम आसमान के साथ देखते थे ।
कभी-कभी सोचती हूँ, सिर्फ़ मैं ही तो नहीं सोचती । मेरे जैसे तो कई सारे लोग है.. छोटी-छोटी बातें हमें बुरी लग जाती हैं और छोटी-छोटी बातें बहुत ख़ुश भी कर जाती है । रवीश सर ने एक बार अपनी फेसबुक वॉल पर लिखा था - "काश हम भी मोटी चमड़ी के होते ।"  अच्छा होता ना, ना किसी की बात दिल पे लगती.. ना दिल की बात किसी को बताते । इमोशनल होना बहुत injurious होता है । इसका ये कतई मतलब नहीं कि हम ख़ुद के बाहर कोई ख़ुशी ढूंढ रहे हैं । ख़ैर....

इन सबके बीच, मैं आज पूरी बेशर्मी के साथ, एक घर का दरवाज़ा खटखटा के (आज ही उनके घर में आई) नयी दुल्हन से मिल आई । हमारी ही बिल्डिंग के फोर्थ फ्लोर पर रहते हैं ..तो नयकी कनिया (दुल्हन) से मिलना ज़रूरी था । और ये मेरे बचपन की आदत है, आस-पड़ोस की किसी नयी दुल्हन को जबतक ना देख लूं, मेरे पेट का भात नहीं पचता । अगर कहूं कि मुझे नयी दुल्हन देखने का बड़ा ज़बरदस्त क्रेज़ है, तो कोई ग़लत बात नहीं होगी । बहुत मज़ा आता है ... और साथ में कुछ गॉसिप मिल जाती है, सो अलग । हालांकि मैं मिठाई लेकर गयी थी, लेकिन लालच शादी के मिठाइयों को खाने की थी  । इसलिए उधर से प्लेट भर के खाजा, गाजा और लड्डू ले आयी ।

मेरे हिसाब की ज़िन्दगी तो यूँ ही चलती है ... छोटी-छोटी खुशियों से.. छोटी-छोटी बातों से । वैसे भी, पता नहीं मेरा और दिल्ली के मौसम का क्या रिश्ता है.. जब भी मैं बहुत ज़्यादा उदास होती हूँ, तब ये भी बदल जाता है । पहले तो इतनी गरमी थी , अब आज मौसम कुछ ठंडा सा है.. बारिश हो जाती तो मेरा मन फिर से अच्छा हो जाता । लगता है आसपास कहीं बारिश हुई है, हाँ कल हल्की बूंदा-बांदी ज़रूर हुई थी  । (बिहार में हमलोग इस  बूंदा-बांदी/drizzling को "झीसी पड़ना" बोलते हैं)

और जब तेज़ ठंडी हवाएं आ ही गयी हैं, वो भी खासकर सिर्फ़ मेरे लिए.. तो बारिश भी आ ही जायेगी ।
और अब बारिश से ज़्यादा सुबह का इंतज़ार है.. सुबह होगी तो कोई ठंडा पेय पीने से थोड़ा ठीक लगेगा । आप भी ट्राई कीजियेगा- सत्तू+निम्बू का रस+चीनी+काला नमक+खीरा कद्दुकस किया हुआ+ग्लूकान-डी+रूह आफज़ा+दही +ठंडा पानी  -- सबको मिक्सी में मिक्स कर दीजिये और पी जाईए ।

(मुझे नहीं पता, मेरी नींद में बड़बड़ाने की आदत कब जायेगी..)
गाने तो आज बहुत सारे सुन लिए, अब ये आज का आख़िरी गाना --
http://www.saavn.com/p/song/hindi/Parineeta/Raat-Hamari-Toh/JVgRRUd9XFE