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Tuesday, January 21, 2014

बकबक

कितना भी कुछ लिख लें.. कितना भी कुछ कह लें.. कुछ बातें हम सिर्फ़ ख़ुद से करते है । एकांत में.. ख़ासकर रात को । वो बातें, जो हम शायद अपने सबसे अच्छे दोस्त से भी नहीं करते.. वो बातें जो हमारे मन की डायरी में अक्षरश: छपी होती है । पर कहीं लिखते नहीं । सिर्फ हम बोलते है और हम ही सुनते है.. कमरे की छत को देखते हुए या फिर रजाई के भीतर ही चुपके-से । आँखों को बंद कर, पलकों के नीचे होती रहती है बात :)
किसी को महसूस करते है या सोचते है शायद कोई हमें महसूस कर रहा हो अभी, हमारे बारे में सोच रहा हो अभी ।
'शायद',
आधे से ज़्यादा बातें तो शायद शब्द की सादगी में ही फंसी रह जाती हैं । शायद/काश/अगर - बड़े अजीब-गजीब शब्द हैं ये । ऐसा होता तो कैसा होता.. वैसा होता तो ऐसा होता ! ख़ैर, ख़ुद से बात करने वालों की दुनिया बहुत रंगीली होती है । सवाल भी हम ही उठाते है और जवाब भी अपने मनपसंद का बना कर दे डालते है ।
ये जो बातें होती है रातों को, ये वो शब्द होते है जो हम या तो किसी से कह नहीं पाते या फिर, जो कहने की तमन्ना रखते है । फिर आ गयी 'काश' पे बात.. कि काश हम जिससे, अपने मन की बात कहना चाहते है वो कह पाएं.. एकांत में।

नोट: मुझे नींद में बड़बड़ाने की आदत है। ये पोस्ट भी उसी का परिणाम है ।

Monday, January 20, 2014

पीड़ा...

क्या होती होगी पीड़ा उस लड़की की,
जो घर की देहरी पारकर
जाती है पैसे कमाने
हम और आप, जिस काम को
संबोधन देते है 'ग़लत काम' का ।
रोज़ उसी ताम-झाम के साथ,
घर से निकलकर पैसे कमाना
और फिर, वापस जूठी देह से..
जूठे हाथ-पैर से..
मुस्कुराते हुए वापस आना ।

क्या होती होगी मजबूरी उस लड़की की,
जो रोज़ निकलती है घर से
किसी सामान की तरह ।
अपने छोटे भाई-बहनों की स्कूल फ़ीस के लिए..
अपने एक कमरे वाले मकान के किराये के लिए..
अपनी माँ की फटी साड़ी को नयी साड़ी में बदलने के लिए..
अपने घर में रोज़ की दो वक़्त की रोटी के लिए..

नहीं समझेंगे हम और आप,
उस लड़की की पीड़ा को ।
हम और आप, तो देखते है उसे गलत नज़रो से..
आपस में कहते है, लड़की सही नहीं है ।

कभी समझा है, क्या होती होगी पीड़ा उस लड़की की !
शायद हमने कभी पूछा ही नहीं !
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Saturday, January 18, 2014

दबी ज़ुबान की कहानी

एक स्त्री की पीड़ा है यह
या यों कहें कि सबसे बड़ा वरदान
बुरा-भला भी नहीं कह सकती इसे,
ऐसा है जैसे अगवा कर लिया हो किसी ने
ऐसा जैसे आक्रमण कर रहा हो कोई अपना
'रजस्वला' होने की दबी ज़ुबान की एक कहानी है ।

याद है उसे आज भी
सुबह उठते ही, बिस्तर लाल देख
घबराते हुए दौड़ी थी माँ के पास ।
माँ भी थोड़ा घबराई थी, लेकिन
ख़ुश होना लाज़िमी था ।
बेटी बड़ी हो गयी थी..
डर भी था कि चौदह साल की बच्ची,
बाहर अनजाने में किसी को कुछ बता न दे..
इसलिए घर की तीन औरतों ने मिलकर
दी थी ढेर सारी समझदारी ।
बेटी को बताया, अब वो बड़ी हो गयी है..
और बच्ची सोच रही थी..
"एक ही दिन में कहाँ से आ गयी इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी" !

याद है उसे आज भी
उन पाँच दिनों में दादी के सामने जाने का डर ।
दादी जिस कुर्सी पर बैठी हों,
उस कुर्सी को छू नहीं सकते..
दादी की प्लेट-गिलास को
यहाँ से वहाँ रख नहीं सकते..
दादी की साड़ी या दादी को छूना तो
बहुत दूर की बात थी ।
घर की बेटियों को
इन नियमों में थोड़ी छूट थी
लेकिन बहुएँ..
गलती से भी गलती नहीं कर सकती थीं ।

पाँच दिन की यह पीड़ा
महीने के तीसों दिन डराती है ।
गुस्से में माँ के सामने ग़र कह दिया,
कि "ये ग़लत है.. हमें ही क्यूँ भुगतना पड़ता है" !
माँ ऊफ़ करते हुए शांत कराती और कहती,
"ऐसा नहीं कहते.. ये भगवान की देन है" ।
अबोधपना फिर पूछ बैठता,
"भगवान की देन है तो फिर भगवान के मंदिर में जाने पर ऐतराज़ क्यूँ !!"
माँ के समझाने का तरीका बहुत ख़ास होता है..
बिना जाने, बिना पढ़े भी,
माँ दुनिया की हर बात समझा जाती है ।
अबोधपने के गुस्से को उसी तरह शांत किया माँ ने,
"यह प्रकृति का नियम है। पुरुष इतना दर्द नहीं सह सकते, इसलिए ये ख़ास वरदान सिर्फ औरतों को मिला.. स्त्री होने का सबसे बड़ा गुण है यह ।
मैं भी बड़ी हुई, पत्नी बनी और फिर माँ...
..और माँ होना इस सृष्टि की सबसे बड़ी ख़ुशी है।"

फिर वही दबी ज़ुबान की कहानी बनकर रह गयी
ये पीड़ा.. या यों कहे वरदान ।
कैलेंडर की तारीखों पर,
हर महीने छुपाकर लगते उन निशानों की तरह...
ये भी एक स्त्री को पूर्ण करते है ।