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Wednesday, July 23, 2014

डेड-एंड !

हज़ारों सिग्नल को पार करते हुए
कई चौराहों से निकलते हुए
कभी कभी लगता है कि
ज़िन्दगी जैसे एक
'डेड-एंड' पर आ पहुंची हो
अब इसे किसी की दरकार नहीं
ज़िन्दगी जैसे अब
अकेले सड़क पार करना चाहती हो


रेड होते सिग्नल से न जाने
कितनी बार ख़ुद को बचाया है इसने
कई दफ़े स्पीड की वजह से
रेड सिग्नल को तोड़ा भी है इसने
डिवाइडर ने एहसास दिलाया
कि इसे बंट कर चलना है सबसे
रास्ते में ख़तरनाक मोड़ भी आये
जहां फिसलन - अँधेरा सारे जुटे थे
फिर गिरने का तजुर्बा हुआ
कुचले जाने का डर हुआ
चलते रहने का जूनून हुआ
संभलने का सुकून हुआ

डेड-एंड से ख़ुद को
बचा लेगी इस बार भी ज़िन्दगी
इक नए सफ़र पर
ख़ुद को भरोसा दिलाएगी ज़िन्दगी
वो देखो,
ज़िन्दगी इस दफ़े.. अकेले सड़क पार कर रही है ।


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3 comments:

  1. जिंदगी रास्ते की दुश्वारियों के बीच से निकलने के लिए हौसला जुटा ही लेती है........यह जरूरी भी है। जिंदगी के रास्तों को दुनियावी रास्तों से जोड़ कर एक अच्छी रचना को प्रस्तुत किया है। फ़लसफ़ा भरपूर है..............बहुत साधारण शब्दों में यह काबिले तारीफ़ है। आँचल की रचनाओं में विविधता और परिपक्वता अब मुखरित होने लगी है..........अच्छी लगती है............बधाई

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  2. आप असाधारण सा लिखती हैं , जो लगता है अभी हुआ है ..मानो मैं जी के आया हूँ..अप्रतिम लेखनी ,अद्भुत ...:)

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  3. पहले कमेंट करने आया था, तब से शायद कुछ बदल दिया कविता को। अब और अच्छी लग रही है। बधाई। वैसे हर एंड, डेड नहीं होता । और एंड होना अपने में आख़िर पायदान नहीं। हर एंड एक नए स्टार्ट का सिग्नल है। ख़ैर , कविता अपने में मुकम्मल है। पढ़ कर अच्छा लगा।

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