सुनो,
कुछ ना कहूं क्या तुमसे ? हर बार मेरी बात क्वेश्चन मार्क से ही क्यूँ शुरू होती है, तुम इसके लिए मुझसे नाराज़ हो सकते हो.. सवाल कर सकते हो । पर मेरी एक ही उम्मीद लगी है तुमसे कि तुम्हारा कुछ कहा, मैं सुनूं । अब इतनी भी उम्मीद लगाने की मेरी हैसियत नहीं, ये ना कह देना । सिर्फ़ इतना तो तुमसे चाह ही सकती हूँ । और किसी बात की उम्मीद मैंने छोड़ दी है । उस वक़्त से, जब ये एहसास हुआ कि मेरे और तुम्हारे बीच बहुत डिफरेंस है । सोच की नहीं, क्लास की । लोअर मिडिल क्लास और अपर क्लास की । गर हम दोनों मिल भी जाते तो पूरी ज़िन्दगी इस खाई को भरने में ही लग जाती शायद । मुझे मालूम है इस बात से तुम इत्तेफ़ाक़ नहीं रखोगे, क्यूंकि तुम्हारी सोच.. तुम्हारे ख़यालात बिलकुल मेरी तरह है। ज़मीं की मिट्टी की तरह । पर तुम्हारे आसपास बहुत चमक है, जिसके लिए शायद मैं.. 'परफेक्ट' नहीं । अब इन सबके बीच अगर मैंने तुमसे कुछ लफ़्ज़ों का नज़राना मांग लिया तो क्या गुनाह कर दिया ! मैं तुम्हें अपने बेहद क़रीब रखना चाहती हूँ । हाँ, तुमने बताया हुआ है कि तुम बंधे हुए आदमी नहीं हो.. पर मैं तुम्हें बांध कर नहीं रखना चाहती । बस, तुम्हारे किसी और से बंध जाने का डर है मुझे.. जो मुझे हर बार कमज़ोर बना देता है । मैं नहीं चाहती तुम्हारे सामने आना, पर तुम्हें एक झलक देखना मेरी ख़ुराक है । मैं तो बस तुम्हें महसूस करना चाहती हूँ.. तुम्हारे लफ़्ज़ों को सुनना चाहती हूँ.. जी भर के । यकीनन इतने भर से तुम्हें कोई ऐतराज़ नहीं होगा.. पर फिर भी एक बार अपनी ख़ामोशी तोड़कर, मेरे हाथों को अपना लम्स देकर.. कुछ कह जाओ.. कोई तो तोहफ़ा दे जाओ ।
मैं तुम्हारी कुछ भी नहीं.. मुझे एहसास है इस बात का । हर बार ख़त के आख़िर में अपना नाम लिख कर, मैं तुम्हें परेशान नहीं करना चाहती ।
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ख़ामोशी में तैरती इक रात..
तुम्हारे लफ़्ज़ों के इंतज़ार में
रफ़्ता-रफ़्ता गुज़र रही है ।
क्यूँ नहीं तोड़ देते तुम अपनी ख़ामोशी को
टुकड़ों-टुकड़ों में.. लफ़्ज़ों-लफ़्ज़ों में..
क्यूँ नहीं बिखर जाते तुम रेत की तरह
सांसों-साँसों में.. हाथों-हाथों में..
कब तक यूँ ही संगमरमर बने रहोगे
कब तक ख़ामोशी का इम्तिहान लेते रहोगे
इसे इत्मीनान नहीं..
अब मेरी ख़ामोशी डूब रही है
ख़ामोशी में तैरती इक रात..
तुम्हारे लफ़्ज़ों के इंतज़ार में
रफ़्ता-रफ़्ता गुज़र रही है ।
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अरे यार कहाँ से ढूंढ के लाती हो शब्दों को? ऐसा लगता है जैसे समुन्दर से निकले मोती हों। एक एक अपनी जगह पर जड़ा हुआ, चमकता हुआ।
ReplyDeleteभावनाओं का अजीब ज्वार था। अच्चा लगा। लिखते रहिये।
नहीं जानता दर्द बढ़ रहा है या परिपक्वता लेकिन आँचल की चमक गुलज़ार होने लगी है। अगर ये दर्द है तो इस दर्द को मिटने न देना और यदि परिपक्वता है तो इतनी तेजी से आयी है ki विस्मयकारी है। अधूरेपन के एकाकी लम्हों से निकली व्यथित रचना सम्पूर्ण है। लेखन के ऐहसास को पाठक के हृदय और आँखों तक ले जाने के लिए बधाई। यदि यह दिल की पीड़ा है तो एक समीक्षक की हैसियत से चाहूँगा ये दर्द कम न हो ............एक मित्र की हैसियत से मैं खुद व्यथित हुआ हूँ.............
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ReplyDeleteन जाने आँचल के आँचल ले ये शब्द कहा से आ जाते है ... मुझे इनमे एक अजीब से तड़प नजर आ रही है ...बस अपना ख्याल रखना कही खो न जाओ इन शब्दों के माया जाल में
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