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Friday, December 20, 2013

शायद, ग़ज़ल बन गयी है ये...

तुमने कहा था एक बार, दूर चली जाओ मुझसे..
अब तुम्हारे साथ रहने की ये आदत जाते-जाते जायेगी ।

तुमने कहा था, फुरसत में कभी मिलेंगे तो कर लेंगे दो बातें..
अब मेरी बेसाख्ता दिल-ए-इज़हार करने की ये आदत जाते-जाते जायेगी ।

तुम्हें होगी ज़माने की परवाह हर वक़्त..
मेरा सिर्फ तुम्हारी परवाह करना, ये आदत जाते-जाते जायेगी ।

अपनी डायरी में तुम्हारा नाम लिख-लिखकर मिटाना..
तुम्हें महसूस करने की बेवजह सी ये आदत जाते-जाते जायेगी ।

हमें कहाँ मालूम था कि तुम मुस्तक़बिल-ए-नारसा* हो..
मुझ जैसी शून्य का
तुम जैसे क्षितिज की ख़्वाहिश करने की ये आदत जाते-जाते जायेगी ।

ख़ामोश-से,अनकहे, अनसुलझे बातों को पिरोकर ग़ज़ल- ख़्वानी^ कहना..
अब खामखाँ अपनी बात कहने की ये आदत जाते-जाते जायेगी ।

*भविष्य, जिस तक पहुंचा ना जा सके
^ग़ज़ल की प्रस्तुति

(कुछ गलतियाँ हुईं हो तो बड़े लोग गुस्ताख़ी समझकर माफ़ करेंगे)

5 comments:

  1. ओय फीलू.... कितना फील करती रहती हो भई.... अच्छा लिखा है....कमाल करते हो पांडे जी ।

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  2. हमें कहाँ मालूम था कि तुम मुस्तक़बिल-ए-नारसा* हो..
    मुझ जैसी शून्य का
    तुम जैसे क्षितिज की ख़्वाहिश करने की ये आदत जाते-जाते जायेगी ।

    हिंदी और उर्दू का इतना अच्छा समागम ,.सिर्फ आँचल करा सकती है ,खूब

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  3. महफ़िल लूट ली। बहुत ही शानदार "Awesome"

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