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Wednesday, November 5, 2014

बिखरी नज़्म...

तुम्हारा आना भी एक ख़्याल था
तुम्हारा जाना भी एक सपने जैसा है

तुम मुझसे मिले थे.. मेरे साथ रहे भी थे
अनजान होगे तुम इस बात से
पर ख़ुशबू तुम्हारी अब तलक मेरे
आसपास टिकी है

याद है तुम्हें...?
तुमने मुझे गले से भी लगाया था
ख़्वाबों के लचकते पुल पर चार कदम
साथ भी चले थे तुम
याद है तुम्हें...?
इक रोज़ तुमने मेरे गालों पर बोसे का गुलाल
लगाया था
बिखरी जुल्फों को कानों के पीछे फंसाकर
चेहरे को अपने दोनों हाथों से थामकर
चुपचाप मेरी नज़रों से कुछ कहा था

ये सब मेरा इक ख्व़ाब था क्यूंकि
तुम्हारा आना भी एक ख़्याल था
और जाना भी एक सपने जैसा है

अब बारिश..हवाएं..धूप.. ये सब आती हैं
तुम्हारा पैग़ाम लेकर
जैसे तेज़ हवा के चलने से मेरे झुमके
पायलों सा शोर करते हैं
हल्की धूप जब आँगन में खिलती है..
बिखरती है ।

ये सब हैं.. तुम कहीं नहीं
मैं वहीँ, उस समन्दर किनारे वाली बेंच पर
बैठे बैठे न जाने क्या बुदबुदा रही हूँ
तुम कहीं नहीं हो, लेकिन शायद सुन रहे हो
तुम्हारे पाँव के निशान भी दिखते नहीं...
...तुम गए नहीं हो क्या अभी तक...?

5 comments:

  1. बिखरी हुई नहीं है ये नज़्म ......बहुत विस्तृत है .....बहुत दिन बाद लिखा शायद खुद से बाहर जाती लगी हो तुम्हे लेकिन बहुत कुछ समेटती अपने साथ ये बढ़ी जाती है ....मुझे बहुत अच्छी लगी और हाँ .....यह पहली बार लिख रहा हूँ .....यह नज़्म गम्भीर भी लगी.....बधाई ....

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  2. बहुत ही बढ़िया | कितने दिनों के बाद आपने ब्लॉग लिखा |

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  3. उम्दा , बेहतरीन !!!

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  4. बहुत दिनों बाद कविता आई है। और अबकी पूरी परिपक्वता के साथ । आपकी कविताओं में भाव हमेशा भारी रहा है। अबकी उसे सँभालने के लिए एक कसी हुई शैली भी है । कविता बहुत पसंद आई। बधाई।

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  5. Very Beautiful..... Mesmerizing ...

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