इक शज़र की दोस्ती हुई हवा के रुख़ से,
रोज़ मिलना तय हुआ एक-दूसरे के वजूद से..
हवा थी बड़ी चंचल,
इधर से उधर भागती फिरती ।
शज़र था बड़ा स्थिर,
शांत और सहनशील ।
दोनों मिलते..
लिपटते..
झूमते..
बिखरते..
संभलते..
और फिर खिलते ।
हवा की अँगड़ाई थी,
शज़र के दिल का चैन ।
जो एक दिन रूठ कर ,
शांत रही थी दिनभर..
हो गया था शज़र बड़ा बेचैन ।
आधी रात जब आयी,
हवा अपना गुस्सा लेकर..
गुज़री थी शज़र के सामने,
आंधी बनकर ।
अब शज़र नहीं करता
हवा को नाराज़ ।
जब आती है हवा संवरकर
तो लगाता है उसे
प्यार से आवाज़ ।
चुपचाप लेता है
हवा को अपनी पनाहों में..
पत्ते-फूल सब मुस्कुराते है,
तब बागानों में ।
अब हवा भी लहराती है अपना आँचल
फिज़ाओं में..
और शज़र भी बरसाता है अपनी छाँव
जहानों में..
हवा का आँचल और शज़र की छाँव..
मशहूर है शहर में..
अब होती है हर शाम,
"आँचल की छाँव" !!!