कुछ फ़िल्में मेरे अंदर इस कदर बैठ जाती हैं कि कई दिनों तक महसूस होता है, ये मेरी ही कहानी है.. मेरा ही हिस्सा है । कुछ ऐसा ही हुआ फ़िल्म "आँखों देखी" के साथ । २-३ हफ्तों पहले ये फिल्म देख ली थी, लेकिन जब पता चला कि ये फ़िल्म हैबिटैट फिल्म फेस्टिवल में स्क्रीन हो रही है तो दुबारा देखने से रोक नहीं पायी । फिल्म देखने से ज़्यादा रोमांच, स्क्रीनिंग के बाद होने वाले Q&A सेशन के लिए था ।
तय वक़्त पर पहुँच तो गयी, लेकिन एंट्री के लिए लम्बी लाइन में लगना पड़ा। जब तक अन्दर पहुंचे, तब तक पूरा ऑडिटोरियम भर चुका था और सारी सीट्स फुल (माने हाउसफुल) । वापस जाने का मन तो बिलकुल भी नहीं था, किसी तरह सेशन तक तो रुकना ही था । इसलिए पहले के दस-पंद्रह मिनट सबसे पीछे खड़े रहे और फिर जब दो-चार लोग कालीन पर ही बैठ गए तो मैं और मेरे भैया भी आराम से आलथी-पालथी लगाकर फिल्म का मज़ा लेने लगे । पहले देखी होने के बावजूद भी एक मिनट के लिए स्क्रीन से नज़र नहीं हटी और एक बात जो मुझे भी हैरान कर रही थी वो ये कि फिल्म को जितना पहली बार एंजॉय किया था, उससे कहीं ज़्यादा दूसरी बार देखने पर एंजॉय कर रही थी । गाने के वक़्त मेरे पैर हिल रहे थे, लिरिक्स और म्यूजिक में बात होती है तभी ऐसा होता है । सबसे पीछे बैठी थी इसलिए ज़ोर से हंसने पर कोई हिचकिचाहट नहीं हो रही थी । एक व्यक्ति बगल में आकर खड़े हुए थे और जब किसी सीन पर मैंने ठहाका लगाया, वो मुझे घूर रहे थे । बाद में पता चला, वो व्यक्ति फिल्म में रजत कपूर के सहयोगी रहे मनीष थे ।
ख़ैर, फिल्म के कई दृश्यों के बारे में बहुत कुछ लिखना चाहती हूँ, लेकिन अपनी अल्प समझ और शब्दों की ज़्यादा जानकारी ना होने की वजह से नहीं लिख पा रही हूँ । और शायद इसलिए भी कि जिन्होंने अब तक फ़िल्म नहीं देखी है, वो ज़रूर देखे । फिल्म में ये बात भी है कि कैसे एक अधेड़ उम्र का इंसान अपने आसपास की तमाम भ्रांतियों को तोड़ने के लिए निकल पड़ता है । इस सफ़र में कुछ चेले भी मिल जाते है और कुछ पागल कहने वाले भी । खीझकर नौकरी छोड़ने के बाद भी, आमदनी का ज़रिया मिल ही जाता है। मतलब आसपास के नियम-कानून सब हमने अपने हिसाब से, अपनी सुख-सुविधा के लिए बनाया है । चाहे कुछ ना भी करो तो भी ज़िन्दगी चल ही जाती है । रोज़ की माथाफोड़ भागमभाग सब हमारी ही बनायी है । आख़िर में भ्रांतियों को तोड़ने की जद्दोजहद करता इंसान अपनी बेटी की शादी में उन्हीं सामाजिक-पारंपरिक रीतियों को निभाता नज़र आता है, जो कि सच के बिलकुल करीब है ।
रिव्यू/समीक्षा लिखने का अभ्यास तो नहीं है, लेकिन इस फ़िल्म ने मुझे इसके बारे में लिखने पर मजबूर कर दिया । एक वाक्य में कहूं तो इस फ़िल्म में दृश्यों और सिचुएशन को नहीं फिल्माया गया, बल्कि विचारों और मानसिकता को फिल्माया गया है और पर्दे पर बखूबी उतारा गया है ।
बहरहाल, फ़िल्म के दौरान भी तालियाँ गूंजती रहीं और फ़िल्म ख़त्म होने के बाद भी । अब रजत कपूर स्टेज पर आ गए थे और मैं पूरे excitement के साथ खड़ी होकर सुनने लग गयी । आते ही उन्होंने कहा - "I suspect many of you are here because you didn't want to pay for a ticket." और फिर ठहाके की गूँज ।
इसके बाद कई सवाल आते गए और फ़िल्म के लेखक और निर्देशक रजत कपूर सबका जवाब देते रहे । बस, फ़िल्म के एंड पर किये सवाल से वो आख़िर तक बचते रहे ।
फ़िल्म को लेकर मेरे कुछ अजीब से सवाल थे, इसलिए जब रजत कपूर साब स्टेज से उतर कर आये तब मैंने अपना सवाल पूछ लिया.. जवाब भी मिल गया । साथ में, मैंने जोड़ दिया , "ख़ासतौर पर आपको और वरुण ग्रोवर को ढ़ेर सारी बधाई ।" पता नहीं क्या था, उनकी आँखें चमक गयी और उन्होंने कहा, "yes,yes..I love him"
साथ में मैंने ये भी कह दिया कि "सर, मैंने ये फ़िल्म पहले pay करके देखी है और आज दुबारा देखी ।"
अब अगली फ़िल्म के लिए भीड़ बढ़ने लगी थी । फ़िल्म के लेखक और निर्देशक से छोटी सी मुलाक़ात करना बेहद अच्छा रहा । और कुछ नहीं तो दिल्ली ने ऐसे कई बेहतरीन लोगों से मिलने का मौका तो दिया ही है।
मैं "आँखों देखी" के लेखक और निर्देशक से मिल चुकी थी ... आँखों से देख चुकी थी और ये बात मैं अपने 'अनुभव' से कह रही हूँ । :)