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Sunday, August 25, 2013

फिर वही सवाल...!

मुंबई गैंग रेप के बाद एक बार फिर देश भर में महिलाओं की सुरक्षा के लिए आवाज़ बुलंद है। लोग फिर से सडको पर है.. सोशल मीडिया पर भी लोग अपनी भड़ास खूब निकाल रहे है। टीवी पैनलों में डिस्कशन चालू है।  सब कुछ अपनी गति से अपनी-अपनी दिशा में कार्यरत है। कोई इस बात से नाराज़ है कि चैनल में इस स्टोरी पर रिपोर्ट दिखाने के दौरान अपने चेहरे को हाथ से ढंकी लड़की की तस्वीर क्यूँ दिखाई जा रही है, तो कहीं कुछ पत्रकारों की विशेष सुरक्षा की भी मांग कर रहे है। विरोध जताने के सबके अपने तरीके है, ठीक भी है - कैसे भी हो विरोध होना ज़रूरी है। इस विरोध जताने की प्रक्रिया में बड़ी संख्या में पुरुष भी है, जिन्हें आगे आते देख, सब समझते और समझाते हुए देख बहुत अच्छा लगता है। फिर भी एक बात जो ऐसी घटनाओं के बाद हर बार मन में आती है, वो ये कि आखिर मनोवृत्ति (mentality) कब बदलेगी? कब हम सारे मर्द के बारे में ऐसा ही अच्छा सोंचेंगे ! कब हम महसूस करेंगे कि 'नहीं, सामने वाला लड़का/पुरुष कुछ गलत नज़र से नहीं देख रहा' !!

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दिल्ली गैंग रेप के बाद हम सब का गुस्सा उबाल पर था। हम इंडिया गेट से लेकर राष्ट्रपति भवन के बाहर तक इकठ्ठा हुए, नारे लगाए, दिल्ली पुलिस डाउन डाउन। वाटर कैनन और आंसू गैस झेले, लाठी भी खाई। वैसे उस दिन अपने पैरो पर एक लाठी खाने के बाद ये तो पता चल गया था कि पुलिस की लाठी में बहुत ताकत होती है..शायद सही जगह इस्तेमाल की जाए तो कुछ परसेंट अपराध ज़रूर कम हो सकते है। मैं और मेरी दोस्त प्रियंका, हम दोनों हमेशा साथ ही प्रदर्शन में गए, उसे भी उस दिन बहुत चोट आई थी। खैर.... ये सब हमने अपनी उस अनजान, हमउम्र दोस्त के लिया किया था, जो उस वक़्त ज़िन्दगी और मौत की लड़ाई लड़ रही थी... हम भी उसके लिए लड़ रहे थे। हाँ, ये बात अलग है कि वहाँ भी कुछ उत्पाती लोग आ गए थे जिस कारण आन्दोलन/प्रदर्शन ने कुछ और ही मोड़ ले लिया। लेकिन इतनी बातें कहने का मतलब ये था कि हम वहाँ भी सुरक्षित नहीं थे। एक औरत के लिए सब जुटे थे, एक औरत के लिए मांग हो रही थी, लेकिन कुछ विशेष प्रकार के eve-teaser वहाँ भी मौजूद थे।
आमतौर पर नारे लगाने के लिए हम सर्कल बनाकर बैठते थे, जहां सभी एक दूसरे से अनजान होते थे। उसमे कई बार कोई लड़का किसी लड़की से चिपक कर बैठने की कोशिश करता। बुरा तो लगता था, पर हम सब किसी और मकसद से वहाँ जुटे थे। एक बार सही से बैठने को बोलकर चुपचाप बैठे रहना ही सही लगता था। हाथो में प्लेकार्ड लेकर कई शाम हम सफदरजंग अस्पताल के बाहर भी खड़े रहे। अस्पताल के ठीक सामने चौड़ी सड़क है, इसलिए अस्पताल से लगे सर्विस लेन में ही पूरी भीड़ इकठ्ठा होती थी, जहां लाइट भी सही ढंग से नहीं होती थी। वहां भी मौके का फायदा उठाने वाले पीछे नहीं रहे, क्यूंकि भीड़ में ज़्यादातर लडकियाँ और महिलायें होती थी.. छूकर निकल जाना और कमेंट पास करना तो आम बात थी। वैसे एक लड़की ने अच्छी डांट पिलाई थी।

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दिल्ली आये हुए ज्यादा दिन नहीं हुए थे मुझे, मेट्रो-बस का चक्कर भी ज्यादा समझ नहीं आता था। राजीव चौक (एक इंटरचेंज स्टेशन, जहां भेड़ो-बकरियों की तरह लोग हांके जाते है) उतरना था मुझे, तब लेडीज कोच नहीं हुआ करता था। राजीव चौक की हालत को देखकर ही समझा जा सकता है, शब्दों में बताना थोड़ा मुश्किल है। कुछ गिराए या खुद गिरे-संभले बिना अगर किसी दिन मेट्रो board या de-board कर ली, तो उस दिन किला-फतह। उतरने वाले लोग चाहते है हम सबसे पहले उतरे और चढ़ने वाले लोग चाहते है उतरने वाले लोग गए भाड़ में, भैया पहले तो हम चढ़ेंगे। खैर मेट्रो और इस स्टेशन का भी अपना एक अलग ही charm है।
हाँ तो मैं राजीव चौक पहुँचने वाली थी। तमाम यात्रियों की तरह मेरी भी इस स्टेशन पर उतरने की पूरी कोशिश थी। लेकिन चढ़ने वालो के रेले ने मुझे उतरने तो नहीं ही दिया, उल्टा धक्के खा-खा के मैं पीछे पहुँच गयी, फिर निकलने की कोशिश की लेकिन तब तक मेट्रो का दरवाज़ा बंद हो चुका था, मेट्रो आगे बढ़ चुकी थी। और मैंने जोर से चीख के कहा था.. तमीज़ नहीं है लोगो को। ये सब नार्मल था, बड़ी बात नहीं थी.. थोड़ी देर बाद इस वाकये पे हंसी ही आती, लेकिन कुछ अजीब तब महसूस हुआ जब मेरे ठीक पीछे खड़े एक अधेड़ उम्र के अंकल जी टाइप "पुरुष" ने मुझे जोर से दबाया, इतना जोर से कि मुझे उनके अंग महसूस हो रहे थे। भीड़ में गलती से टकराना-धक्का लगना एक बात होती है, लेकिन ये कुछ ऐसा था जो जान बूझकर किया जा रहा था। मैं झट से मुड़ी, उनकी और देखा.. किसी तरह थोडा अलग हटी.. air-conditioned मेट्रो में मैं पसीने से तर-बतर थी.. शायद कांप भी रही थी, किसी ने देखा-समझा नहीं था इस बात को। इतने में अगला स्टेशन बाराखम्भा रोड आ गया, कुछ अच्छे लोगो को ये मालूम चल चुका था कि मैं एक स्टेशन आगे आ गयी हूँ, इसलिए उन्होंने मुझे गेट तक रास्ता दिया और मैं स्टेशन पर उतर गयी। कुछ समझ नहीं आ रहा था, सीढियों तक पहुँचते-पहुँचते मेरी आँखों में आंसू थे, वहीँ बैठ गयी एक बार को लगा क्यूँ निकल कर आ गयी मैं मेट्रो से, ऐसे इंसान को वहीँ २-४ लगाने थे.. थोड़ी देर बाद खुद नार्मल हुई फिर आगे बढ़ी..लेकिन उस वक़्त कुछ समझ नहीं आया था।
इस वाकये के तकरीबन एक साल बाद मेट्रो में लेडीज कोच की सुविधा हुई, उस रोज़ न्यूज़ सुनकर मैं बहुत खुश थी। लेकिन लेडीज कोच और जनरल कोच के बीच वाले खोपचे में खड़े मर्दों की निगाहें दायें-बायें ना होकर लडकियों की तरफ ही मुड़ी रहती है और scanning चालू। ...तब लगता है बहुत सुधार की ज़रुरत है।

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सड़क पर चलते वक़्त कुछ ज्यादा ही सावधानी बरतनी होती है। बाइक वाले तो कमेंट पास करके निकल ही जाते है, और सड़क किनारे खड़ी हर कार से डर लगता है, ३-४ फुट की दूरी बनाकर चलना ही सही लगता है.. चाहे पास ही में पीसीआर वैन खड़ी हो। कमेंट पास करते और इशारे करते "पुरुषो" को इग्नोर करना ही सही लगता है। कई केस ऐसे भी हुए है, जहाँ लड़की के पलटकर जवाब देने के बाद उसके साथ और ज्यादा बदसलूकी हुई है। ये तो बाहर संभल कर रहने की बात थी, एक बार हमारे घर में कुछ मरम्मत का काम कराने हमारे landlord दरवाज़े पर आ गए, मैंने दरवाज़ा नहीं खोला कह दिया, घर में कोई बड़ा नहीं इसलिए अभी काम नहीं करवाना। बाद में भिड़ गए, कहने लगे काम करवा लेते मैं बैठ जाता.. मैंने कहा,"मैं आपको भी नहीं जानती, इसलिए दरवाज़े के अन्दर नहीं ले सकती, काम अगले हफ्ते होगा।"

कई बार हर किसी पे शक़ होता है। घर के बाहर और घर के अन्दर अपनी सेफ्टी खुद करनी पड़ती है। लेकिन फिर वही बात हर रोज़ बैग में अपने साथ मिर्ची पाउडर, पेप्पर पाउडर और चाकू लेकर निकलने के बावजूद भी हम सुरक्षित महसूस नहीं करते।

 

5 comments:

  1. हर किसी पर शक करना अच्छा है बजाय इसके की जीवन भर प्रताड़ना का बोझ सहा जाये। इत्तेफाक से बचपन से अपराध और अपराधी मानसिकताओं का वेरिएशन देखता आया हूँ। पुरुष का स्त्री के प्रति साधारण आकर्षण आवसर मिलते ही अपराध में बदलता है जिसके बोझ तले अनगिनत जिंदगियाँ पिसती हैं। कानून सुरक्षा तो छोड़िये सुरक्षा का आश्वासन भी नही दे पा रहा है और न्यायाधीश अहंकार में बैठे हैं। तुमने ही सुबह भी ऐसा ही ब्लॉग पढ़वाया था। मानसिकता किसी दबाव से बदलती है या फिर हजारों वर्ष इंतजार कीजिये। यहाँ मानसिकता बदलने के लिए जरूरी है महिलाओं पर उठती गलत नजर को तेजाब पिलाया जाये माने सख्त सजाएं वो भी शीघ्र। बलात्कारी को एक माह में गला काट कर मारिये। दस सजाओं के बाद देखना अपराध कैसे रुकता है। मैं शरिया कानून की बात नहीं कर रहा हूँ करूँगा भी नहीं क्योंकि कट्टर हिन्दू हूँ वो भी डेमोक्रेटिक लेकिन जानता हूँ जिस प्रताड़ना को लेकर हमारी महिलाएं जी रही हैं उन भयभीत माताओं से तो भयभीत समाज की ही उत्पत्ति होगी जैसा कि आज का भारतीय समाज है भी। भयभीत समाज में अपराधियों के हौसले बुलंद होते हैं और वही हो रहा है। महिलाओं को साहसी बनना होगा बनाना होगा तभी ये मानसिकता बदलेगी और ऐसा हो सकता है उन प्रयासों से जिन्हें ठेकेदार टाइप के लोग अमानवीय कहते हैं और मुझ जैसे लोग इन तरीकों को मानवता का रक्षक समझते हैं। लेख बहुत प्रासंगिक है जरूरी भी। लिखना साहसी व्यक्ति का कम है।

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  2. Nice post... plz keep it up..........

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  3. जिस रफ़्तार से सोच बदलनी थी , लोगो का बर्ताव बदलना था वैसा कुछ हुआ भी है तो एक तबका(लोअर क्लास) ऐसा भी है जो इन सब चीज़ों से बिलकुल अनभिज्ञ है , और शायद नहीं बदलेगा | inherited मानसिकता को बदलना मुश्किल होता है और खासकर ऐसे तबको के लिए | खैर भेडिये भेडिये होते है किसी जंगल(तबके)में ज्यादा किसी में कम | रही बात शक की , इक बार यकीन टूट जाने पर उस नस्ल पर यकीन करते रहना मुश्किल है |आप लोगों के खुद के ऐसे अनुभव और न्यूज़ चैनल , अख़बारों में आने वाली कई घटनाएं उस 'यकीन' को मार डालती है | आप लोगो का गुस्सा,शक सर आँखों पर ,भले ही बेवजह क्यूँ न हो | सबसे अच्छी चीज़ जो देखने को मिली रही है , वो है आप लोगो की आवाज़, जो सोशल मीडिया में खुलकर बोल रही है|खुलकर बोलिए , मुखर बनिए अपने लिए ही नहीं दूसरों के लिए भी , आखिर वजूद की लड़ाई है | ऐसे ही लिखते रहिये , सराहनीय पोस्ट |

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  4. बेहद मार्मिक ब्लॉग हैं और आप कन्याओं लोगो को जो कुछ झेलना पड़ता हैं उसे सुनने के बाद ही रोम-रोम कांप जाता हैं. ये कुछ मुद्दे हैं,जिन पर दिमाग सन्न हो जाता विवेक कार्य करना बंद कर देते हैं. शब्दों और विचारों का सूखा पड़ जाता हैं. लेकिन कोइ उपाय नहीं सूझता अपनी ख़ुद की सीमा-क्षेत्र के दायरे में! बस आत्मा धिक्कारती रहती हैं एक अरसे तक

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  5. badhiya likhi ho....aanchal...jari raho

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