चोर हो तुम । हाँ, कोई संबोधन नहीं देना है मुझे तुम्हें.. हर बार कोई ख़त ना लिखने का फ़ैसला करती हूँ, लेकिन हर बार कुछ लिखने का मन कर जाता है । तुम्हें भी हर बार मुझे नाराज़ करने की आदत पड़ी है । जानबूझकर नाराज़ करते हो ना मुझे? बस, नाराज़ करके छोड़ देते हो.. एक दफ़ा याद भी नहीं करते । तुम्हीं ने एक बार कहा था ना कि मुझे नाराज़ होने का बहाना चाहिए.. यही समझ लो, पर इस बहाने के बहाने प्यार से गले लगाने भी नहीं आओगे, ये कहाँ पता था ! प्यार करते भी हो मुझसे और नहीं भी । पास चाहते भी हो और नहीं भी । इसलिए कहती हूँ चोर हो तुम । प्यार करते हो तो फिर बताते क्यूँ नहीं ! ऐसा कौन सा तूफ़ान आ जाएगा इज़हार करने से ? चुप छुप के अपनी नज़्मों में मुझे लिखते हो और पूछने पर कहते हो कि मैं किसी के लिए कुछ नहीं लिखता । फिर अब अपनी हर नज़्म में मुझे क्यूँ सजाते हो ? तुमसे अब बात नहीं करती फिर भी याद नहीं करते मुझे । तुम्हारे कुछ बोलने से मुझे कितनी ख़ुशी होगी, ये बेहतर जानते हो तुम । फिर भी । मेरी लंबी बातों का अब भी दो शब्दों में जवाब देते हो तुम । ज़्यादा बोलने से ज़बान जलती है क्या तुम्हारी ! चोरों की तरह चुरा लिया । और चोरों की तरह प्यार करते हो । साथ रहते भी हो पर पास नहीं रहते । अब कहोगे, प्यार नहीं करता । अगर प्यार नहीं करते तो इतना याद क्यूँ आते हो ? मांगने पर भी कुछ नहीं दिया तुमने मुझे । पूछा तक नहीं । तुम मुझे कुछ दे ही नहीं सकते । सिवाय इस अजीब से एहसासात के । तुम मुझे कुछ नहीं दे सकते... प्यार भी नहीं ।
Pageviews last month
Wednesday, December 10, 2014
Tuesday, December 2, 2014
बहुत आरज़ू थी गली की तेरी...
पहली बार ऐसा हुआ है
कि पहले 'उन्वान'* लिखा है
फिर नज़्म को सजाना चाहा है
वो शायद इसलिए कि
तुम्हारे-मेरे साथ का आख़िरी
मकाम यही होना है
एहसास ये है
कि तुम्हें आगे बढ़ जाना है
और मुझे तुम्हें खो देना है
अब किसी और बात का
न इसरार^ होगा ना कोई तवक़्क़ो होगी
अब तुम्हारे दर पर ये मेरे कुछ
कि पहले 'उन्वान'* लिखा है
फिर नज़्म को सजाना चाहा है
वो शायद इसलिए कि
तुम्हारे-मेरे साथ का आख़िरी
मकाम यही होना है
एहसास ये है
कि तुम्हें आगे बढ़ जाना है
और मुझे तुम्हें खो देना है
अब किसी और बात का
न इसरार^ होगा ना कोई तवक़्क़ो होगी
अब तुम्हारे दर पर ये मेरे कुछ
आख़िरी ख़तों की दस्तक होगी ।
मेरी रूह ने तुममें
कोई अपना महसूस किया था
उस पागल ने तुम्हें
बेइंतहा अपनापन दिया था
तुम्हारे नाम को भी
अपने नाम के साथ सजाया था
कोई अपना महसूस किया था
उस पागल ने तुम्हें
बेइंतहा अपनापन दिया था
तुम्हारे नाम को भी
अपने नाम के साथ सजाया था
तुम भी इक दफ़े
आये थे बहार की तरह खिलते हुए
मुझ डाली को
अपनी बाहों में समेटने के लिए
उस शाम जब
तुमसे शर्माने का नज़ारा होता था
तभी मेरा
ख़ुद से ख़ुद ही में सिमटना होता था
वो तुम्हारे साथ
मेरी रूह का आख़िरी सुक़ून था ।
आये थे बहार की तरह खिलते हुए
मुझ डाली को
अपनी बाहों में समेटने के लिए
उस शाम जब
तुमसे शर्माने का नज़ारा होता था
तभी मेरा
ख़ुद से ख़ुद ही में सिमटना होता था
वो तुम्हारे साथ
मेरी रूह का आख़िरी सुक़ून था ।
न जाने हवाओं से कहकर
तुम्हें कितने पैग़ाम पहुँचाये फ़िर
सारे मौसमों को
तुम्हारे घर का पता भी बताया था
न जाने क्या क्या
उन ख़तों में लिखकर भेजा है मैंने तुम्हें
कोई हर्फ़ ना लिखकर भी
बहुत कुछ कहा है तुम्हें
मैं कहते कहते थक गयी
तुम चुप ही रहे
मैंने तुमसे चुप रहने की आदत जब सीख ली
तुम फिर भी ख़ामोश ही रहे ।
तुम्हें कितने पैग़ाम पहुँचाये फ़िर
सारे मौसमों को
तुम्हारे घर का पता भी बताया था
न जाने क्या क्या
उन ख़तों में लिखकर भेजा है मैंने तुम्हें
कोई हर्फ़ ना लिखकर भी
बहुत कुछ कहा है तुम्हें
मैं कहते कहते थक गयी
तुम चुप ही रहे
मैंने तुमसे चुप रहने की आदत जब सीख ली
तुम फिर भी ख़ामोश ही रहे ।
अब तुम्हारी नज़्मों में
जो ख़्याल उड़ता है उनमें
अपनी शक्ल ढूंढती हूँ मैं
तुम्हें पास लाने का ख़्वाब
फिर सताने लगता है
तुम्हें भूलने का इरादा
ज़रा सा डगमगाने लगता है
पर तुम बेफ़िक्र रहना
मेरे ख़त तुम्हें अब परेशान नहीं करेंगे
आख़िरी तोहफ़ा
बग़ैर किसी ख़त के भेजा है तुम्हें ।
जो ख़्याल उड़ता है उनमें
अपनी शक्ल ढूंढती हूँ मैं
तुम्हें पास लाने का ख़्वाब
फिर सताने लगता है
तुम्हें भूलने का इरादा
ज़रा सा डगमगाने लगता है
पर तुम बेफ़िक्र रहना
मेरे ख़त तुम्हें अब परेशान नहीं करेंगे
आख़िरी तोहफ़ा
बग़ैर किसी ख़त के भेजा है तुम्हें ।
-----------
*शीर्षक
^ज़ोर देना या ज़िद करना
^ज़ोर देना या ज़िद करना
Subscribe to:
Posts (Atom)