हर साल सावन शुरू होते ही दादी की सबसे प्रिय पोती नहीं होने के बावजूद भी मुझे उनकी याद आ जाती है । इधर ये महीना शुरू हुआ नहीं कि दादी का शोर शुरू हो जाता था । घर की बहुओं के लिए हरी चूड़ियां/लहठी मंगवाने के लिए तो कभी रोज़ मंदिर जाकर शिव जी पर जल चढाने के लिए । रोज़ मंदिर जाने की चिढ़ से 'भक' बोलकर बच भी जाते थे, लेकिन ये चूड़ियां लाने का काम तो मैं बड़े शौक से करती थी । दुकान से सामान घर लाकर सबको पसंद करवाना और फिर वापस जाकर पैसे देना- इस क्रम में या इस काम के बदले में दो-चार चूड़ियां मुझे भी पहनने को मिल जाती थी । यही कारण है कि आज भी सावन शुरू होते ही दादी की आवाज़ कानों में गूंजने लगती है, "रे जाही न रे ! माई आ छोटी माई लागी चूड़ी लावहि ना" । अब घर फ़ोन कर के सबसे पहले माँ को याद दिलाती हूँ, "माँ, हरा लहठी पहनी कि नहीं?"
इसके अलावा हर सोमवार को बेलपत्र पर राम-राम लिखवाने का काम भी होता था । नागपंचमी के दिन पूरे घर के पक्के वाले हिस्से को धोना और कच्चे वाले हिस्से को मिट्टी-गोबर से लीपना । हालांकि ये सब काम करवाए जाते थे । लेकिन पूरा सावन ऐसे बीतता जैसे तीसों दिन ही कोई त्योहार हो । नागपंचमी के बाद, सावन के बचे दिनों में से किसी एक दिन कुलदेवता की पूजा होती है और पूजा तक कुछ भी तला हुआ बनाने की मनाही । पूजा के दिन दालपुड़ी, खीर इत्यादि इत्यादि बनते । लकड़ी के चूल्हे पर । माँ-चाचियाँ दिनभर पूजा की तैयारियों में लगी रहतीं और हम बच्चे रंगीन कागज़ को तिकोने शेप में काटकर झंडियां बनाकर, लेई बनाते और फिर रस्सियों पर लगा लगाकर पूरे घर को सजाते, अशोक के पत्ते को भी इसी तरह रस्सियों में सजाते ।
बहरहाल, सावन में अब कुछ ही दिन बचे है.. कुलदेवता की पूजा इसी हफ़्ते घर पर होगी.. नागपंचमी तो बीत ही चुका है । लेकिन दादी फिर अगले सावन ऐसे ही यादों में आ जायेगी। सावन क्या, बल्कि हर त्यौहार के दिन.. आश्विन-कार्तिक हर महीने । अफ़सोस इस बात का है कि दादी जब आसपास थी तब उनके ज़्यादा क़रीब नहीं हो पायी मैं.. (या उन्होंने करीब लाया नहीं) .. अब ऐसे ही हर तीज-त्योहारों पर दादी को अपने आसपास महसूस करती हूँ ।
(दादी से जुड़ी बहुत सारी बातें हैं.. समय-समय पर शेयर करने की कोशिश करुँगी)।