कितना भी कुछ लिख लें.. कितना भी कुछ कह लें.. कुछ बातें हम सिर्फ़ ख़ुद से करते है । एकांत में.. ख़ासकर रात को । वो बातें, जो हम शायद अपने सबसे अच्छे दोस्त से भी नहीं करते.. वो बातें जो हमारे मन की डायरी में अक्षरश: छपी होती है । पर कहीं लिखते नहीं । सिर्फ हम बोलते है और हम ही सुनते है.. कमरे की छत को देखते हुए या फिर रजाई के भीतर ही चुपके-से । आँखों को बंद कर, पलकों के नीचे होती रहती है बात :)
किसी को महसूस करते है या सोचते है शायद कोई हमें महसूस कर रहा हो अभी, हमारे बारे में सोच रहा हो अभी ।
'शायद',
आधे से ज़्यादा बातें तो शायद शब्द की सादगी में ही फंसी रह जाती हैं । शायद/काश/अगर - बड़े अजीब-गजीब शब्द हैं ये । ऐसा होता तो कैसा होता.. वैसा होता तो ऐसा होता ! ख़ैर, ख़ुद से बात करने वालों की दुनिया बहुत रंगीली होती है । सवाल भी हम ही उठाते है और जवाब भी अपने मनपसंद का बना कर दे डालते है ।
ये जो बातें होती है रातों को, ये वो शब्द होते है जो हम या तो किसी से कह नहीं पाते या फिर, जो कहने की तमन्ना रखते है । फिर आ गयी 'काश' पे बात.. कि काश हम जिससे, अपने मन की बात कहना चाहते है वो कह पाएं.. एकांत में।
नोट: मुझे नींद में बड़बड़ाने की आदत है। ये पोस्ट भी उसी का परिणाम है ।