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Wednesday, July 31, 2013

बारिश का बोसा ...

आज मौसम का मुझपर रसूख हुआ कुछ ऐसा...
छूकर सावन की बूंदों ने मुझे,
कुछ लिखने को कहा है खुद जैसा.. ।


बारिश के बोसे से याद आये ज़िन्दगी के कुछ बोसीदा वरक़*..
झूमा आसमान, गाने लगी हवाएं और
आहिस्ते से कुछ कहने लगा मेरे मन का हर्फ़ ।

इसकी हर एक बूँद के बेगुनाह लम्स** से खिल जाती हूँ मैं..
इसकी शरारत भरी संगत में और भी निखर जाती हूँ मैं ।

हर बार महसूस होता जैसे कोई हबीब^ पैग़ाम लेकर आया है ये..
पर जब मचल कर जाती हूँ इसकी ओर,
तो चुपचाप मुस्कुरा कर मुझे अपनी नज़रो में भर लेता है ये ।

इस मुएँ की साज़िश में हर बार फंस जाती हूँ मैं..
आह भरकर इसके सामने रहने को मजबूर हो जाती हूँ मैं ।

कुछ-कुछ  बेतरतीब सा लिखने को कहा था इसने ऐसा..
मैंने भी शब्द ढाले है उसके ही अंदाज़े-बयाँ जैसा...।


आज मौसम का मुझपर रसूख हुआ कुछ ऐसा...
छूकर सावन की बूंदों ने मुझे,
कुछ लिखने को कहा है खुद जैसा.. ।



*  बोसीदा- पुराना वरक़- पन्ना
**लम्स- स्पर्श 
^  हबीब- प्यारा 

Friday, July 12, 2013

आवाज़ेपा...

हाँ..
    सुन लिया मैंने वो जो तुमने नहीं कहा है अब तलक..
    जान गयी हूँ वो जो तुमने छुपा रखा है अपने सीने में..
    समझ लिया मैंने वो जो तुमने रखा है बस अपने तलक...
    लेकिन शायद तुम भूल गए,
    तुम्हीं ने कहा था कि.. सोच की अदला-बदली ज़रूरी है..
                           अब अपनी बात से खुद ही मुकर रहे हो..
    खुद को पिंजरे में क्यूँ कैद कर रहे हो..!
    खुद के बनाए जाल में क्यूँ फंस रहे हो...!
 

हाँ,
     मैंने सुन लिया है वो.. लेकिन फिर भी इक बात कहनी है तुमसे

     तुम चाहते हुए भी खुद को मुझसे अलग नहीं कर सकते
     और मैं ना चाहते हुए भी तुमसे जुड़ती जा रही हूँ..

     इस आगाज़ का अंजाम नहीं मालूम मुझे..
     लेकिन अब तुम्हारे और करीब होती जा रही हूँ मैं..
     तुम्हे इल्म न हो इस बात का ऐसा मुमकिन नहीं..
     लेकिन तुम्हारी आवाज़ेपा* अपनी धडकनों में महसूस करती जा रही हूँ मैं..

हाँ..
     सुन लिया मैंने वो जो तुमने नहीं कहा है अब तलक...



* पाँव की आहट