रात ख़ामोश होकर भी
अनगिनत बातें कह जाती है ।
आता है कोई शायर
यूँ ही किसी रात
खानाबदोश सा
रात को ही सिरहाना बनाकर
उसके ही बिस्तर पर
तकिये का टेक लगाकर
रात के बदन पर
अपनी नज़्म पूरी कर जाता है ।
किसी खुदगर्ज़ आशिक़ की तरह
हर बार गुज़रते हुए
रात को अपनी
नज़्मों में सिमटा लेता है ।
कलम की बेबाकी और
डायरी के पन्नों की शोखी में
जिंदा लफ़्ज़ों के साथ
दफना देता है ।
क्यूँ ना तुम भी यूँ ही किसी रात
मेरे सामने बैठ जाते
अपने लिए ना सही
मेरी ख़ुशी के लिए आ जाते ।
बेसब्र रात कटती रहती
कोई नज़्म भी बढ़ती रहती
बच जाते हम-तुम
तो हम भी किसी डायरी में
किसी आवारा शायर की
ख़ूबसूरत नज़्म बनकर
दफ़न हो जाते
शायद थोड़ा-सा और जी पाते ।
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