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Wednesday, December 10, 2014

ख़त में लिपटी रात... (३)

चोर हो तुम । हाँ, कोई संबोधन नहीं देना है मुझे तुम्हें.. हर बार कोई ख़त ना लिखने का फ़ैसला करती हूँ, लेकिन हर बार कुछ लिखने का मन कर जाता है । तुम्हें भी हर बार मुझे नाराज़ करने की आदत पड़ी है । जानबूझकर नाराज़ करते हो ना मुझे? बस, नाराज़ करके छोड़ देते हो.. एक दफ़ा याद भी नहीं करते । तुम्हीं ने एक बार कहा था ना कि मुझे नाराज़ होने का बहाना चाहिए.. यही समझ लो, पर इस बहाने के बहाने प्यार से गले लगाने भी नहीं आओगे, ये कहाँ पता था ! प्यार करते भी हो मुझसे और नहीं भी । पास चाहते भी हो और नहीं भी । इसलिए कहती हूँ चोर हो तुम । प्यार करते हो तो फिर बताते क्यूँ नहीं ! ऐसा कौन सा तूफ़ान आ जाएगा इज़हार करने से ? चुप छुप के अपनी नज़्मों में मुझे लिखते हो और पूछने पर कहते हो कि मैं किसी के लिए कुछ नहीं लिखता । फिर अब अपनी हर नज़्म में मुझे क्यूँ सजाते हो ? तुमसे अब बात नहीं करती फिर भी याद नहीं करते मुझे । तुम्हारे कुछ बोलने से मुझे कितनी ख़ुशी होगी, ये बेहतर जानते हो तुम । फिर भी । मेरी लंबी बातों का अब भी दो शब्दों में जवाब देते हो तुम । ज़्यादा बोलने से ज़बान जलती है क्या तुम्हारी ! चोरों की तरह चुरा लिया । और चोरों की तरह प्यार करते हो । साथ रहते भी हो पर पास नहीं रहते । अब कहोगे, प्यार नहीं करता । अगर प्यार नहीं करते तो इतना याद क्यूँ आते हो ? मांगने पर भी कुछ नहीं दिया तुमने मुझे । पूछा तक नहीं । तुम मुझे कुछ दे ही नहीं सकते । सिवाय इस अजीब से एहसासात के । तुम मुझे कुछ नहीं दे सकते... प्यार भी नहीं ।

Tuesday, December 2, 2014

बहुत आरज़ू थी गली की तेरी...

पहली बार ऐसा हुआ है
कि  पहले  'उन्वान'* लिखा है
फिर नज़्म को सजाना चाहा है
वो शायद इसलिए कि
तुम्हारे-मेरे साथ का आख़िरी
मकाम यही होना है
एहसास ये  है
कि तुम्हें आगे बढ़ जाना है
और मुझे तुम्हें खो देना है
अब किसी और बात का
न इसरार^ होगा ना कोई तवक़्क़ो होगी
अब तुम्हारे दर पर ये मेरे कुछ 
आख़िरी ख़तों की दस्तक होगी ।

मेरी रूह ने तुममें
कोई अपना महसूस किया था
उस पागल ने तुम्हें
बेइंतहा अपनापन दिया था
तुम्हारे नाम को भी
अपने नाम के साथ सजाया था

तुम भी इक दफ़े
आये थे बहार की तरह खिलते हुए
मुझ डाली को
अपनी बाहों में समेटने के लिए
उस शाम जब
तुमसे शर्माने का नज़ारा होता था
तभी मेरा
ख़ुद से ख़ुद ही में सिमटना होता था
वो तुम्हारे साथ
मेरी रूह का आख़िरी सुक़ून था ।

न जाने हवाओं से कहकर
तुम्हें कितने पैग़ाम पहुँचाये फ़िर
सारे मौसमों को
तुम्हारे घर का पता भी बताया था
न जाने क्या क्या
उन ख़तों में लिखकर भेजा है मैंने तुम्हें
कोई हर्फ़ ना लिखकर भी
बहुत कुछ कहा है तुम्हें
मैं कहते कहते थक गयी
तुम चुप ही रहे
मैंने तुमसे चुप रहने की आदत जब सीख ली
तुम फिर भी ख़ामोश ही रहे ।

अब तुम्हारी नज़्मों में
जो ख़्याल उड़ता है उनमें
अपनी शक्ल ढूंढती हूँ मैं
तुम्हें पास लाने का ख़्वाब
फिर सताने लगता है
तुम्हें भूलने का इरादा
ज़रा सा डगमगाने लगता है
पर तुम बेफ़िक्र रहना
मेरे ख़त तुम्हें अब परेशान नहीं करेंगे
आख़िरी तोहफ़ा
बग़ैर किसी ख़त के भेजा है तुम्हें ।
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*शीर्षक
^ज़ोर देना या ज़िद करना

Friday, November 7, 2014

पुरानी दिल्ली का ख़ास अंदाज़

दिल्ली में ऑटो वाले और रिक्शे वाले अच्छे मिल जाए तो लगता है पिछले जन्म के अच्छे करम का कोई फल मिला है । पहले पुरानी दिल्ली की भूल भुलैया में गुम हुई, परेशान इतना हुई कि अमरुद खरीद के खाना भूल गयी और फिर भागमभाग से परेशान । मेट्रो स्टेशन के लिये रिक्शा लेना ही उचित समझा । रिक्शे वाले अंकल से हुई बातचीत ---

- कैसी सड़क है !!! पता नहीं भगवान ने कैसी सड़क बनायी है ।
- हाहा, भगवान ने बनायी है ये सड़क ?
- और नहीं तो क्या ! आदमी को पढ़ा लिखा होना चाहिए.. चाहे कोई भी काम करता हो, लेकिन पढ़ा होना चाहिए । जैसे मैं रिक्सा चलाता हूँ और भी कई सारे काम करता हूँ ।  जैसे ये विदेसी लोग आते हैं, कुछ बोलेंगे और हम इनका मुंह ही देखते रह जायेंगे । पहले तो इंगलिस मुझे आती नहीं थी । फिर धीरे धीरे सीखा । ये होती है ना, डिशनरी.. वो खरीद के लाया मैं ।
- तो अब आप विदेसी लोगों से बात कर लेते हो ?
- हाँ, और नहीं तो क्या? वो बोलते है, हे विल यू गो । यस यस कमऑन ।

(मैं अंकल की बात सुनने की कोशिश कर रही थी, समझ रही थी और हँस भी रही थी । सामने से बाइक पर बैठे दो लड़के आ रहे थे, बड़बड़ाते हुए आगे निकले, अरे ये तो हँस रही है । (भगवान्, इस देश में सबको सद्बुद्धि दे) ख़ैर..)

- पहले तो मुझे स्पाइस का मतलब भी नहीं पता था, एक लेडीस आई और बोली कि स्पाइस मार्केट ले चलो । मैं कहूं, ये क्या होता है ? फिर समझ आया ।
मेहनत करना चाहिए.. मेहनत करने से जो है सरीर का कंफिडेंस बना रहता है । अच्छा अच्छा खाओ..खूब खाओ और कुछ नहीं । मैं तो कुछ गलत नहीं खाता.. सिर्फ़ चाय और खाना । ओनली टी एंड फूड । अरे बहुत जाम है.. यही तो फेमस है.. दिल्ली का जाम और लखनऊ का आम ।

(दरयागंज का ट्रैफिक खचाखच था । मेरे लिए जाम जाए चूल्ही में । मैं अंकल की बातों पर कॉसन्ट्रेट कर रही थी ।)

- अच्छा ये जो बिहारी लोग होते है, ये कम पढ़े-लिखे होते है । इनका प्रतिसत बहुत कम होता है ।
- तो आप बिहार से हैं क्या ?
- नहीं, मैं यूपी का हूँ.. लखनऊ का ।
ये लो, आ गया । मिट्रो । खूब चैन से रहो और भगवान को फोन मिलाते रहो ।
- हेहे.. भगवान के पास फ़ोन है ?
- हाँ, और नहीं तो क्या! देखो, तुम्हें जो भी बात हो ना, भगवान को बोल दो । कहते हैं ना, उससे शेयर करो । ऐसा बोलते है, भगवान जो है, भक्त के बस में रहते है । फौन मिलाते रहो ।

Wednesday, November 5, 2014

बिखरी नज़्म...

तुम्हारा आना भी एक ख़्याल था
तुम्हारा जाना भी एक सपने जैसा है

तुम मुझसे मिले थे.. मेरे साथ रहे भी थे
अनजान होगे तुम इस बात से
पर ख़ुशबू तुम्हारी अब तलक मेरे
आसपास टिकी है

याद है तुम्हें...?
तुमने मुझे गले से भी लगाया था
ख़्वाबों के लचकते पुल पर चार कदम
साथ भी चले थे तुम
याद है तुम्हें...?
इक रोज़ तुमने मेरे गालों पर बोसे का गुलाल
लगाया था
बिखरी जुल्फों को कानों के पीछे फंसाकर
चेहरे को अपने दोनों हाथों से थामकर
चुपचाप मेरी नज़रों से कुछ कहा था

ये सब मेरा इक ख्व़ाब था क्यूंकि
तुम्हारा आना भी एक ख़्याल था
और जाना भी एक सपने जैसा है

अब बारिश..हवाएं..धूप.. ये सब आती हैं
तुम्हारा पैग़ाम लेकर
जैसे तेज़ हवा के चलने से मेरे झुमके
पायलों सा शोर करते हैं
हल्की धूप जब आँगन में खिलती है..
बिखरती है ।

ये सब हैं.. तुम कहीं नहीं
मैं वहीँ, उस समन्दर किनारे वाली बेंच पर
बैठे बैठे न जाने क्या बुदबुदा रही हूँ
तुम कहीं नहीं हो, लेकिन शायद सुन रहे हो
तुम्हारे पाँव के निशान भी दिखते नहीं...
...तुम गए नहीं हो क्या अभी तक...?

Sunday, August 10, 2014

रक्षाबंधन

जीवन में बड़े भाई का होना बहुत ज़रूरी होता है । ठीक वैसे ही जैसे छोटा भाई, बहन की हर गलती में, हर शैतानी में उसका साथ देता है.. वैसे ही बड़े भाई लाइफ की हर छोटी-बड़ी प्रॉब्लम को समझने का, उन्हें सुलझाने का नज़रिया देते हैं । मुझे तो शुरुआत में भैया के साथ रहने का ज़्यादा मौका नहीं मिला.. पर पिछले कुछ सालों से, जब से दिल्ली में हूँ.. हम दोनों को एक-दूसरे के साथ ज़िन्दगी समझने का मौका मिला । हालांकि इस दौरान पिछ्ले कई साल साथ नहीं बिताने और हम दोनों के बीच छ: साल के अंतर की वजह से मुश्किलें आती रही । समझदारी का अनुपात बहुत गड़बड़ा देने वाला हो जाता है ना ! :)  ख़ैर, अब वो अंतर काफी हद तक मिट चुका है और मैं भी औसतन काफी समझदार हो गयी हूँ ।
इसके अलावा, भैया की वजह से भाभी आयीं और मुझे ननद बनने का सौभाग्य मिला। साथ ही भाभी पर रौब झाड़ने का भी  ;)

इन्हीं बातों के साथ, इस बार भी भैया को रक्षाबंधन की बहुत बहुत शुभकामनाएं और साथ में, यह ब्लॉगपोस्ट जो पिछले साल लिखी थी । - http://aanchalkiaashayein.blogspot.in/2013/08/blog-post_20.html

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इन सबके बीच इस राखी, घर पर रह रहे अपने छोटे भाई की भी बहुत याद आई । जब पिछले साल घर गयी थी, तब गोलू बहुत बड़ा और बहुत समझदार लग रहा था । एक बार को यकीन करना मुश्किल हो जाता है कि ये छोटी माँ का वही छोटा सा बेटा है जिसने मेरे सामने जन्म लिया था । वही छोटे-छोटे हाथ.. छोटे-छोटे पैर वाला - कन्धा नापते नापते अब मुझ से भी लंबा हो गया है । अब पढ़ाई, करियर, राजनीति, इत्यादि इत्यादि को लेकर उसके ढ़ेरों सवाल होते हैं ।

ये छोटे भाई इतने बड़े और केयरिंग कैसे हो जाते हैं !! कपड़ों से निकली ब्रा-स्ट्रैप को देखकर वो नज़रें झुकाकर, धीरे से कहते हैं, 'दीदी, कपड़ा सही कर लीजिये' । या फिर बाज़ार में सबकी नज़रों पर गहरी निगरानी रखते हैं .. साथ चलने पर हमें बायीं ओर और ख़ुद हमारे दायीं होकर चलने लगते हैं.. मार्केट से कुछ लाने की बात पर कहते हैं- आप कहाँ जाईयेगा.. हम ला देते है । या हम भी साथ चलते है । इन छोटे भाइयों का इतना केयरिंग हो जाना बहुत प्यारा लगता है और शायद यही सब हम लड़कियों को अपने मायके को छोड़ते वक़्त रुलाता है ।

 

Monday, August 4, 2014

एक सावन ऐसा भी

हर साल सावन शुरू होते ही दादी की सबसे प्रिय पोती नहीं होने के बावजूद भी मुझे उनकी याद आ जाती है । इधर ये महीना शुरू हुआ नहीं कि दादी का शोर शुरू हो जाता था ।  घर की बहुओं के लिए हरी चूड़ियां/लहठी मंगवाने के लिए तो कभी रोज़ मंदिर जाकर शिव जी पर जल चढाने के लिए । रोज़ मंदिर जाने की चिढ़ से 'भक' बोलकर  बच भी जाते थे, लेकिन ये चूड़ियां लाने का काम तो मैं बड़े शौक से करती थी । दुकान से सामान घर लाकर सबको पसंद करवाना और फिर वापस जाकर पैसे देना- इस क्रम में या इस काम के बदले में दो-चार चूड़ियां मुझे भी पहनने को मिल जाती थी । यही कारण है कि आज भी सावन शुरू होते ही दादी की आवाज़ कानों में गूंजने लगती है, "रे जाही न रे ! माई आ छोटी माई लागी चूड़ी लावहि ना" । अब घर फ़ोन कर के सबसे पहले माँ को याद दिलाती हूँ, "माँ, हरा लहठी पहनी कि नहीं?"
इसके अलावा हर सोमवार को बेलपत्र पर राम-राम लिखवाने का काम भी होता था । नागपंचमी के दिन पूरे घर के पक्के वाले हिस्से को धोना और कच्चे वाले हिस्से को मिट्टी-गोबर से लीपना । हालांकि ये सब काम करवाए जाते थे । लेकिन पूरा सावन ऐसे बीतता जैसे तीसों दिन ही कोई त्योहार हो । नागपंचमी के बाद, सावन के बचे दिनों में से किसी एक दिन कुलदेवता की पूजा होती है और पूजा तक कुछ भी तला हुआ बनाने की मनाही । पूजा के दिन दालपुड़ी, खीर इत्यादि इत्यादि बनते । लकड़ी के चूल्हे पर । माँ-चाचियाँ दिनभर पूजा की तैयारियों में लगी रहतीं और हम बच्चे रंगीन कागज़ को तिकोने शेप में काटकर झंडियां बनाकर, लेई बनाते और फिर रस्सियों पर लगा लगाकर पूरे घर को सजाते, अशोक के पत्ते को भी इसी तरह रस्सियों में सजाते ।
बहरहाल, सावन में अब कुछ ही दिन बचे है.. कुलदेवता की पूजा इसी हफ़्ते घर पर होगी.. नागपंचमी तो बीत ही चुका है । लेकिन दादी फिर अगले सावन ऐसे ही यादों में आ जायेगी। सावन क्या, बल्कि हर त्यौहार के दिन.. आश्विन-कार्तिक हर महीने । अफ़सोस इस बात का है कि दादी जब आसपास थी तब उनके ज़्यादा क़रीब नहीं हो पायी मैं.. (या उन्होंने करीब लाया नहीं) .. अब ऐसे ही हर तीज-त्योहारों पर दादी को अपने आसपास महसूस करती हूँ ।

(दादी से जुड़ी बहुत सारी बातें हैं.. समय-समय पर शेयर करने की कोशिश करुँगी)।

Wednesday, July 23, 2014

डेड-एंड !

हज़ारों सिग्नल को पार करते हुए
कई चौराहों से निकलते हुए
कभी कभी लगता है कि
ज़िन्दगी जैसे एक
'डेड-एंड' पर आ पहुंची हो
अब इसे किसी की दरकार नहीं
ज़िन्दगी जैसे अब
अकेले सड़क पार करना चाहती हो


रेड होते सिग्नल से न जाने
कितनी बार ख़ुद को बचाया है इसने
कई दफ़े स्पीड की वजह से
रेड सिग्नल को तोड़ा भी है इसने
डिवाइडर ने एहसास दिलाया
कि इसे बंट कर चलना है सबसे
रास्ते में ख़तरनाक मोड़ भी आये
जहां फिसलन - अँधेरा सारे जुटे थे
फिर गिरने का तजुर्बा हुआ
कुचले जाने का डर हुआ
चलते रहने का जूनून हुआ
संभलने का सुकून हुआ

डेड-एंड से ख़ुद को
बचा लेगी इस बार भी ज़िन्दगी
इक नए सफ़र पर
ख़ुद को भरोसा दिलाएगी ज़िन्दगी
वो देखो,
ज़िन्दगी इस दफ़े.. अकेले सड़क पार कर रही है ।


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Tuesday, July 15, 2014

ख़त में लिपटी रात... (२)

सुनो,

कुछ ना कहूं क्या तुमसे ? हर बार मेरी बात क्वेश्चन मार्क से ही क्यूँ शुरू होती है, तुम इसके लिए मुझसे नाराज़ हो सकते हो.. सवाल कर सकते हो । पर मेरी एक ही उम्मीद लगी है तुमसे कि तुम्हारा कुछ कहा, मैं सुनूं । अब इतनी भी उम्मीद लगाने की मेरी हैसियत नहीं, ये ना कह देना । सिर्फ़ इतना तो तुमसे चाह ही सकती हूँ । और किसी बात की उम्मीद मैंने छोड़ दी है । उस वक़्त से, जब ये एहसास हुआ कि मेरे और तुम्हारे बीच बहुत डिफरेंस है । सोच की नहीं, क्लास की । लोअर मिडिल क्लास और अपर क्लास की । गर हम दोनों मिल भी जाते तो पूरी ज़िन्दगी इस खाई को भरने में ही लग जाती शायद । मुझे मालूम है इस बात से तुम इत्तेफ़ाक़ नहीं रखोगे, क्यूंकि तुम्हारी सोच.. तुम्हारे ख़यालात बिलकुल मेरी तरह है। ज़मीं की मिट्टी की तरह । पर तुम्हारे आसपास बहुत चमक है, जिसके लिए शायद मैं.. 'परफेक्ट' नहीं । अब इन सबके बीच अगर मैंने तुमसे कुछ लफ़्ज़ों का नज़राना मांग लिया तो क्या गुनाह कर दिया ! मैं तुम्हें अपने बेहद क़रीब रखना चाहती हूँ । हाँ, तुमने बताया हुआ है कि तुम बंधे हुए आदमी नहीं हो.. पर मैं तुम्हें बांध कर नहीं रखना चाहती । बस, तुम्हारे किसी और से बंध जाने का डर है मुझे.. जो मुझे हर बार कमज़ोर बना देता है । मैं नहीं चाहती तुम्हारे सामने आना, पर तुम्हें एक झलक देखना मेरी ख़ुराक है । मैं तो बस तुम्हें महसूस करना चाहती हूँ.. तुम्हारे लफ़्ज़ों को सुनना चाहती हूँ.. जी भर के । यकीनन इतने भर से तुम्हें कोई ऐतराज़ नहीं होगा.. पर फिर भी एक बार अपनी ख़ामोशी तोड़कर, मेरे हाथों को अपना लम्स देकर.. कुछ कह जाओ.. कोई तो तोहफ़ा दे जाओ ।

मैं तुम्हारी कुछ भी नहीं.. मुझे एहसास है इस बात का । हर बार ख़त के आख़िर में अपना नाम लिख कर, मैं तुम्हें परेशान नहीं करना चाहती ।
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ख़ामोशी में तैरती इक रात..
तुम्हारे लफ़्ज़ों के इंतज़ार में
रफ़्ता-रफ़्ता गुज़र रही है ।

क्यूँ नहीं तोड़ देते तुम अपनी ख़ामोशी को
टुकड़ों-टुकड़ों में.. लफ़्ज़ों-लफ़्ज़ों में..
क्यूँ नहीं बिखर जाते तुम रेत की तरह
सांसों-साँसों में.. हाथों-हाथों में..

कब तक यूँ ही संगमरमर बने रहोगे
कब तक ख़ामोशी का इम्तिहान लेते रहोगे
इसे इत्मीनान नहीं..
अब मेरी ख़ामोशी डूब रही है

ख़ामोशी में तैरती इक रात..
तुम्हारे लफ़्ज़ों के इंतज़ार में
रफ़्ता-रफ़्ता गुज़र रही है ।

................................

Tuesday, July 8, 2014

अनजाने लोग

वर्कशॉप में वो मेरे पीछे वाली सीट पर बैठी थी । सुन्दर साड़ी, साड़ी का पल्ला चुन्नटों वाला नहीं था..एक पल्ला था (फ्री फॉल), मैचिंग चूड़ियां और बात करने का तरीका बिलकुल ठेठ । आरती प्रियदर्शिनी ।

इतनी साधारण, फिर भी इतनी आकर्षक । बाकियों का नहीं पता, पर मुझे नामालूम क्यूँ बार-बार इनसे बात करने का मन कर रहा था । पहले दिन तो आगे चुपचाप बैठकर, लंच टाइम में होने वाली इनकी बातचीत को मैं सुन रही थी । वर्कशॉप में सब एक-दूसरे से अजनबी थे, पहली बार मिल रहे थे.. इसलिए वो अपने आसपास बैठी बाकी महिलाओं से बातें करने लगी ।

"हम गोरखपुर से आये हैं।"
"गोरखपुर से दिल्ली सिर्फ इसी वर्कशॉप के लिए?"
"हाँ, और हम पहली बार दिल्ली आये हैं। बहुत मन करता है लिखने-पढ़ने का। गृहस्थी के काम से जब भी टाइम मिलता है, मतलब सब काम कर लिए ना, उसके बाद जो भी समय बचता है..उसमें लिखते है । पत्रिका तो हम खूब पढ़ते हैं..हिंदी पत्रिका । गृहशोभा में कुछ कहानियां भी छप चुकी है ।"
बाकी की महिलाएं गोरखपुर के बारे में पूछने लगी। उन्होंने मान्यता के अनुसार बताया, फिर कहने लगी, "हमारा मायका मुज़फ्फरपुर है । (ये सुनकर बातचीत में मेरा इंटरेस्ट जाग गया,चूँकि मैं पड़ोसी जिला की हूँ..शायद इसलिए) ये नाम भी मेरे दादाजी का ही दिया हुआ है । उनको इंदिरा जी बहुत पसंद थीं, इसलिए वो चाहते थे कि उनकी पोती भी कुछ करे..इसलिए उन्होंने मेरे नाम के आगे प्रियदर्शिनी लगा दिया है । (हँसते हुए आगे कहा) अब उतना कहाँ हो पाता है.. वहाँ तक पहुंचना मुस्किल है। इसलिए कहानी -लेख लिखकर अपना मन का कुछ करते रहते है ।"

उस दिन का सेशन ख़तम होने वाला था..मुझे जल्दी निकलकर एक हिस्टोरिक सेशन के लिए दूसरी जगह जाना था । इसलिए आरती प्रियदर्शिनी से मुलाक़ात अधूरी रह गयी ।

अगले दिन मैं लेट पहुंची.. पर आरती जी वहीं पीछे वाली रो में ही बैठी थी। आगे वाली सीट ख़ाली थी, इसलिए मैं दुबारा से उनकी बात सुनने के लिए वहीँ बैठ गयी । आज भी साड़ी वैसी ही पहनी हुई, गुलाबी रंग की । और चूड़ियां बदली हुई, साड़ी की मैचिंग । लंच-टाइम हुआ तो मैंने पीछे मुड़कर बात शुरू कर ही दी।

"हर साड़ी की मैचिंग चूड़ियां लेकर आई हैं आप?"
एक बड़ी सी मुस्कराहट के साथ उन्होंने कहा, "हाँ, हमको चूड़ी का बहुत शौक़ है । जहां भी जाते है, सब साड़ी का मैचिंग ले जाते हैं ।"
"तब तो चूड़ी का एक अलग बैग होता होगा!"
"हाहा, हाँ । मेरे पति को बहुत पसंद है.. इसलिए परेसानी नहीं होती ।"
शायद वो मेरी बात समझ गयी थी, कि पुरुष ज़्यादा लगेज बनाने पर और ढोने पर झल्ला जाते हैं ।
मैंने आगे कहा, "पहली बार दिल्ली आई हैं.. घूमी दिल्ली?"
"हाँ, कल यहाँ से निकलने के बाद लाल क़िला गए थे । पति- बच्चे इतनी देर के लिए कहीं आसपास चले जाते है। फिर शाम को हमको लेने आ जाते हैं । "
मैं पूछती रही वो बताती रही, उन्होंने ये भी नहीं पूछा कि मैं क्यूँ पूछ रही हूँ !!
"वैसे तो हम हर साल घूमने जाते हैं..हर साल घूमते है हम.. जब अपने तरफ सीतलहर चलता हैं ना तब हम पूरा साउथ इंडिया घूमते है ।"
निश्चित ही मुझे इससे लग गया था कि आरती जी के पति उन्हें बेहद प्रेम करते है.. तभी तो शीतलहर में कड़कड़ाती ठण्ड से बचाने के लिए, दस दिनों के लिए ही सही आराम की छुट्टी दे देते है ।

सेशन के दौरान उन्होंने सवाल भी पूछा तो इतनी आसानी से .. अपनी बोली में.. बिना हिचकिचाहट। अपने बगल में बैठी एक महिला, जिनके हाथ सूने थे.. आरती जी ने ना जाने क्या सोचते हुए एक कंगन अपनी बैग से निकालकर उन्हें दे दिया । कहा, पहनिए, हम आपके लिए ही लाये हैं ।

मुझे आरती प्रियदर्शिनी बहुत अच्छी लग रही थी । पीछे बैठे वो बोली जा रही थी और मैं कुर्सी पर पीठ टिकाकर, सिर को थोड़ा पीछे झुकाकर उनकी बात सुनकर मुस्कुरा रही थी । कई बार मंच पर बोल रहे वक्ता की बात से ज्यादा मुझे आरती जी की बात में रूचि हो रही थी ।  (और मुझे बिलकुल भी अंदाज़ा नहीं था कि इसका नतीजा इस ब्लॉगपोस्ट के रूप में आएगा ।)

Tuesday, July 1, 2014

ख़त में लिपटी रात...

(यह एक फिक्शनल ख़त है।)


सुनो,
         हाँ! मैं कब से तुम्हें ऐसे ही पुकारना चाहती थी और तुम भी मुझे ऐसे ही पुकारो, यही चाहती थी । ये ख़त इसलिए क्यूंकि ख़त लिखने का मौसम फ़िर से लौट आया है । सुना है, सबसे ज़्यादा प्रेम लिफ़ाफ़े में बंद इन्हीं लिखे शब्दों में झलकता है ।

मैं क्यूँ नहीं रह सकती तुम्हारे साथ ? मैं क्यूँ दूर जाऊं तुमसे या तुम मुझसे क्यूँ दूर जाना चाहते हो ? मुझे तो तुम्हारे साथ अपना हर वक़्त बिताना था.. सब बातें कहनी थी । तुम्हारी कुछ भी ना कहने की आदत सीखनी थी । मुझे तुम्हारे जैसा होना था ।

मैंने क्या चाहा था तुमसे, ये मुझे ख़ुद नहीं पता ! बस इतना कि मुझे तुमसे टोकरी भर बातें करनी थी और तुम्हारी कुछ बातें सुननी थी । तुम्हारे साथ सुबह की चाय, दोपहर का अलसाना, शाम की फ़ुर्सत, रात का महकना... ये सब गुज़ार सकूं, बस यही चाहा था । एक और चीज़ चाही थी, जो मुझे बेहद पसंद है.. कि तुम मुझे इअरिंग्स लाकर दो.. झुमके, बालियाँ..कुछ भी  या फ़िर चूड़ियाँ.. रंग-बिरंगी ।

जिस समन्दर के किनारे मैं कब से जाना चाहती हूँ.. वहाँ मैंने तुम्हारे साथ जाने का सपना देखा था । वहीँ किनारे किसी बेंच पर तुम्हारे साथ बैठ सकूं,तुम्हारे गाल नोंच सकूं, तुम्हें कस के गले लगा सकूं, रेत पर तुम्हारे पैरों पर अपने पाँव रखकर चल सकूं, लड़खड़ा सकूं, और तुम संभाल सको... बस यही चाहा था । पर मेरा ये सपना गीली रेत से बनाये उस घर जैसा था, जिसे समंदर अपनी लहरों के साथ बहा ले गया ।

ये सच है, मैं जो कुछ लिखती हूँ वो तुम्हें सोचकर लिखती हूँ । जो अनकही है, उन्हें लिखती हूँ । पर एक बात जो तुम्हें नहीं मालूम कि मैं तुम्हारा लिखा सिर्फ़ अपने लिए पाती हूँ । सिर्फ़ अपने लिए समझती हूँ.. इसमें कोई और रुख़, मुझसे बर्दाश्त नहीं होता । तुम्हारे लिखे में हर बार मैं अपना नाम ढूंढती हूँ । ख़ुद से जोड़ लेती हूँ। तुम्हारी नज़र में यही मेरी गलतियां हैं.. पर मेरे लिए ये एक ज़रिया है, तुम्हें अपने क़रीब पाने का.. बेहद करीब..बेहद बेहद करीब ।

तुम्हारा लिखा पढ़ते वक़्त कई बार आँखें भर गयी है मेरी..कई बार मुस्कुराई हूँ मैं.. जैसे एक-एक शब्द मेरे कानों में सुना रहे हो तुम । आते-जाते.. सड़क पर या फिर मेट्रो में सफ़र करते हुए, जब भी तुम्हारा कुछ पढ़ा, मेरी भावनाएं मेरे बस में ना रही । ये सच है ये ख़्वाबों की दुनिया है.. पर ख़्वाब तुमने नहीं देखे क्या कभी ?

मुझे मालूम है हम दोनों नहीं मिल सकते । क्यूँ नहीं मिल सकते, इसकी समझ मुझ में नहीं । ये सब तो मेरा कहा है, मेरे दिल की बात है.. पर तुम्हारे दिल में क्या है, ये तुमने कभी बताया ही नहीं.. या बताना चाहा ही नहीं.. या फिर तुम्हारे दिल में मेरे लिए कुछ रहा ही ना हो ! बस यही एक तकलीफ़ है । पहले एक बार कहा था ना तुमसे कि जब मिलोगे, और मैं गले लगने आऊं तो मुझे झटकना मत.. तुमने वही कर दिया है.. झटक दिया मुझे । देखा नहीं, मैं कितना चहकती हुई सिर्फ़ तुम्हारे क़दमों की आहट सुन के दौड़ती-भागती चली आई.. बस मुझे आता देख तुमने अपना मुंह फेर लिया ।

मैंने कई बार खुद को तुम्हारे पास पाया है .. नहीं.. नहीं ! तुम्हें अपने पास महसूस किया । ख़ुद को कैसे भेज दूं तुम्हारे पास?.. उसकी इजाज़त तुमने कहाँ दी है ! पर क्या तुमने मुझे अपने आसपास कभी महसूस नहीं किया !!! मुझे ये भी कभी समझ नहीं आया कि यूँ ही बैठे-बैठे.. या कोई दूसरा काम करते हुए मेरे दिल से तुम्हारा नाम कैसे निकल जाता है ! हंसी आएगी तुम्हें..पर कई बार होंठों से भी अकेले में तुम्हारा नाम पुकार देती हूँ । मुझे नहीं मालूम, मेरा दिल इतना पावरफुल कैसे हो गया ! शरीर के सारे अंगों में सबसे ज़्यादा मज़बूत । और अब तुम्हें ये छोड़ नहीं पा रहा.. दूर नहीं कर पा रहा.. हर बार एकाधा बातें कहने की फ़िराक़ में रहता है । तुमसे अलग होना इसके लिए कमज़ोरी की बात है ।

पिछला सावन भी हरा नहीं था.. सादा ही गुज़रा । इस सावन से फ़िर से ढ़ेर सारी उम्मीद लगाए बैठी हूँ.. शायद बूंदे मेरे लिए कोई पैग़ाम लेकर आये । जिसे पाकर मैं हँसते हुए रो सकूं या रोते-रोते हंस सकूं ! जैसे अभी कुछ बूंदे डायरी के पन्नों पर आ गिरी है.. ये सावन मेरे लिए इस बार शायद और हरा हो जाए ! और कुछ नहीं, तो एक ख़त ही मेरे नाम से भेज देना जिसे मैं तुम्हारी आवाज़ में पढ़ सकूं ।

ये तोहमतें नहीं है.. ना ही शिकायतें हैं.. इसे भी मेरे प्यार का एक अंदाज़ ही समझना । तुम जैसे रहना चाहते हो, वैसे ही रहो । मुझसे दूर । पर तुम मेरे क़रीब हमेशा रहोगे.. क़रीब नहीं, तुम तो मेरे अन्दर रहते हो । तुमसे जुदा होना मुश्किल है.. लेकिन तुम्हारे साथ रहना सांस लेने जैसा है । बेहतर है सांस लेती रहूँ.. धीमे-धीमे तुम्हें महसूस करती रहूँ । तुम्हारी ख़ामोशी को पढ़ती रहूँ और समझने की कोशिश करती रहूँ ।

नहीं नहीं करते-करते देखो मैं कितना बोल गयी.. आजकल मौसम ही ऐसा है.. सच ज़ुबान पर आ ही जाता है । सुनो, अब ज़्यादा नहीं लिख सकती। ख़त हैं ना, क्या पता उड़ते-उड़ते किसी के हाथ लग जाए.. कोई और पढ़ ले !



तुम्हारी,
मुझे तो ये भी नहीं पता मैं तुम्हारी क्या हूँ !! इतना पता है कि बस तुम्हारी हूँ, चाहे तुम मुझे अपना समझो..ना समझो ! इसलिए इस बार इसे ख़ाली ही रहने देती हूँ ।

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Saturday, June 28, 2014

वीकेंड

हफ़्ते भर की थकान दूर करने
आने वाले हफ़्ते का मेकओवर करने
लो आ गया तुम्हारा वीकेंड ।

जागो,
आज तो नींद जल्दी खुलेगी तुम्हारी
वीकेंड के कीमती पलों को
यूँ ही कैसे गुज़ार दोगे !

जागो कि हफ़्ते भर से रखे
एडिटोरियल पेज तुम्हारे इंतज़ार में हैं ।
जागो कि फ़ोन में सेव किये
रिमाइंडर्स बस बजने ही वाले हैं ।

जागो कि दरवाज़े के पीछे हफ़्ते भर से
टंगे कपड़े धुलने के इंतज़ार में
तुम्हारा बासी चेहरा देख रहे है।
जागो कि इस हफ़्ते रिलीज़ हुई
मूवी भी तुम्हें सिनेमा हॉल में देखना चाहती है ।

ये वीकेंड तुम्हारे वीकडेज़ से
भी ज़्यादा व्यस्त है ।
और तुम कहते हो, छुट्टी का दिन है
आज सब कुछ मस्त है !

हफ़्ते भर तड़पकर कहते हो
काम से एक मिनट की फ़ुर्सत नहीं ।
तुम्हीं बताओ,
वीकेंड पर भी तुम्हारे पास
ख़ुद के लिए वक़्त नहीं !

Friday, June 27, 2014

स्टेशनरी शॉप...

नुक्कड़ की स्टेशनरी शॉप वाले अंकल,

सुना है आपकी दुकान अब बंद होने वाली है। आपकी दुकान से जुड़ी मेरी बहुत-सी यादें हैं, जिनके बारे में मैं अबतक सोचती हूँ । आप सोचेंगे आपकी दुकान से मेरी ऐसी कौन सी यादें जुड़ी है.. तो मैं कहूँगी, जुड़ी हैं, बहुत सारी यादें जुड़ी हैं । ज़रूरी नहीं होता कि किसी की याद हमें तभी आये, जब सामने वाला भी हमें याद करता हो । मैं जब कभी किसी भी स्टेशनरी शॉप के बगल से गुज़रती हूँ, मुझे अपनी वो तमाम बातें याद आती हैं.. जो मैंने आपकी दुकान के काउंटर पर खड़े हुए संजोयी थी । वहीँ, जहां मैंने कई बार अपनी इच्छाओं को इरेज़र से मिटाया था ।

मैं आपकी दुकान पर जाती और अपने सारे पसंदीदा सामानों के दाम पूछकर वापस आ जाती.. इस काम को मैं हर बार करती जब भी आपकी दुकान में कुछ नया टंगा नज़र आता । वो कई नोंक वाली पेंसिल आती थी ना.. जिसमें से एक की नोंक खतम हो जाए तो पीछे से दूसरा निकाल कर डाल दो, और बाहर से अंदर का सबकुछ दिखता था । वो पेंसिल मुझे बहुत पसंद थी । मेरी क्लास में एक लड़की के पास वैसी ही पेंसिल थी, सभी रंगों की.. वो हर रोज़ सबको दिखाती । पर मेरी पेंसिल बॉक्स से वैसी पेंसिल नदारद थी ।

मैंने आपकी दुकान पर उस पेंसिल के कई रंग पसंद कर रखे थे । पीला और गुलाबी मुझे सबसे ज़्यादा अच्छा लगता था । लेकिन गुज़रते हुए जब आपकी दुकान में देखती तो हर रोज़ मेरी पसंद की एक पेंसिल वहाँ से गायब हो जाती । शायद मुझसे ज़्यादा वो पेंसिल किसी और को पसंद थे.. उसकी पसंद पूरी हो जाती.. मेरी पसंद विंडो शॉपिंग बन जाती ।

एक और था, कई रंगों वाले पेंसिल का पैकेट । स्केच पेन से थोड़ा महंगा आता था.. वो भी पसंद था मुझे । कॉपी के सादे पन्नों पर कई चित्र बनाए थे, सोचा था वो पेंसिल जब मेरे पास आएगी तब उनमें रंग भरुंगी ।

पर वो सारे चित्र अब भी अधूरे है.. कुछ तो खराब हो गए.. कुछ फेंक दिए, आपकी स्टेशनरी की दुकान पर देखे ख्वाबों की तरह ।

पर अब जब भी किसी को ऐसी चीज़ पसंद करते हुए देखती हूँ, तुरंत खरीद कर देती हूँ । दीदी के बच्चों को कई बार लाकर दिया, ड्राइंग बुक के साथ वो रंग-बिरंगी पेंसिल । जब वो मुस्कुराकर उसे इस्तेमाल करते हैं, मेरे सपने हंसने लगते हैं । मैं ख़ुद को वहीं, आपकी काउंटर पर खड़ी पाती हूँ.. खिलखिलाकर हँसती हुई.. सारे सामान अपने हाथों में लिए ।

आपकी दुकान ने मेरे सपनों को भले ही पूरा न किया हो, लेकिन किसी और के सपनों को अधूरा ना रहने देने की ताक़त दी है । सच बताऊँ तो मुझे अब महंगे पेन अच्छे नहीं लगते.. ऐसा लगता है उनसे हैंडराइटिंग ही नहीं बन रही । आप अपनी दुकान बंद मत होने दीजिये.. क्या पता अब भी मेरी तरह कोई रोज़ आपकी दुकान के चक्कर लगाती हो। प्लीज़, उसके ख़्वाबों का शटर मत गिराइए ।  उसके सपने तो बंद नहीं होने चाहिए न !

आपकी ग्राहक,
जिसने आपकी दुकान से शायद ही कभी कुछ ख़रीदा हो ।

Saturday, June 21, 2014

ऐसी तैसी डेमोक्रेसी

पिछ्ले एक हफ़्ते से इस पर लिखना चाह रही थी, पर लिख आज रही हूँ । हैबिटैट में ऐसी तैसी डेमोक्रेसी नाम से एक स्टैंड-अप कॉमेडी शो हो रहा था । मुझे ये शो हर हाल में देखना था, इतनी शिद्दत से मैंने यह शो देखने की चाहत की थी कि मुझे इसकी टिकट इस शो के मिस्टर परफ़ॉर्मर की दया-दृष्टि से मिल गयी । जी, इस मामले में तो मेरी किस्मत बहुत अच्छी निकली ।


बहरहाल, यह एक स्टैंड अप कॉमेडी शो था । इसके पहले इस तरह का शो कभी देखा नहीं था, तो मेरे लिए बहुत ख़ास रहा । सच कहूं, तो "स्टैंड अप कॉमेडी" की सही परिभाषा मुझे भी नहीं पता थी । पर यह शो देखने के बाद कुछ-कुछ तो समझ आ गया । ख़ास बात यह रही कि शो में पहला मज़ाक/सटायर/तंज इसी बात पर था कि स्टैंड अप शो होता क्या है ! वरुण ग्रोवर और संजय राजौरा ने ऑडिटोरियम में खचाखच भरी भीड़ को हंसाने का ज़िम्मा लिया था और इसमें उनका बखूबी साथ निभाया म्यूजिशियन राहुल राम ने । बीच-बीच में डेमोक्रेसी पर तंज करते गाये कुछ गीत बेहद मनोरंजक रहे । लाइव कॉमेडी शो की यही अच्छी बात होती है कि परफॉरमेंस देने वाले सीधे तौर पर ऑडियंस से कनेक्ट करते हैं । यहाँ भी वही हुआ, लेकिन वरुण ग्रोवर को दिल्ली की ऑडियंस के ह्यूमर पर शायद थोड़ा शक़ था.. इसलिए जब उनके एक पंच पर हम सब हँसे, तो मिस्टर परफ़ॉर्मर ने बड़ी ही अदा के साथ कहा कि, "I never thought delhi audience will understand it."  इस बात पर उन्हें डबल तालियाँ मिली । नब्बे मिनट तक पूरा ऑडिटोरियम हँसता रहा । हाँ, शो के दौरान कुछ तीखी गालियों का ज़रूर इस्तेमाल हुआ, जिन्हें मैं अगली बार से कम करने को कहूँगी ।


हँसते-हँसाते नब्बे मिनट का शो खत्म हुआ पर मुझे लग रहा था कि यह नब्बे मिनट थोड़ी देर और चलता । शो खत्म होने के बाद पूरी ऑडिटोरियम ने स्टैंडिंग ओवेशन दिया (पूरे दिल से)। इस पूरे दिल से में दिल्लीवालों को एक परसेंट इस बात की भी ख़ुशी थी कि यह शो मुंबई के बदले पहले दिल्ली में हुआ । इस मामले में दिल्ली १-० से आगे हो चुका है ।



हालांकि, मुझे इस शो की टिकट बहुत आराम से मिल गयी थी फिर भी मैं इसके अगले शो के लिए सबको टिकट खरीद कर इसे देखने की गुज़ारिश करुँगी । यकीन मानिए, मुझे इस शो के प्रमोशन करने के पैसे नहीं मिले है, लेकिन हाँ, ये ज़रूर कहूँगी कि जहां आप 250-300 ₹ की Sub खा सकते हैं और उससे चर्बी चढ़ा सकते हैं तो उस चर्बी को उतारने के लिए और उस Sub से भी ज़्यादा हेल्दी 'हंसने' के लिए तो इतने पैसे खर्च किये ही जा सकते है । यह बात मुझे ज़्यादा अच्छे से समझ आई जब मैंने अपनी रो में ही बैठे एक उम्रदराज़ को पूरे शो के दौरान ज़ोर-ज़ोर से हँसते सुना था । और मैं, जिसे वापस आते वक़्त मेट्रो-ऑटो में हर बात हल्की लग रही थी । फ़िक्र नॉट टाइप । और ये सब कुछ स्टेज के उन 'माय डिअर' परफारमर्स की वजह से ।






 

Friday, June 20, 2014

यात्रा संस्मरण

यह यात्रा संस्मरण मेरा नहीं । इसमें मेरे भैया की पहली विदेश यात्रा के दौरान पर्थ शहर में घटी एक घटना का ज़िक्र है । शब्द उसी के हैं, बस ब्लॉग मेरा है । बहुत दिनों पहले उससे ज़ोर-ज़बरदस्ती से इस घटना को डायरी में लिखवा तो लिया था पर ब्लॉग पर आज टाइप करके डाला । पब्लिश करने जा रही थी तो ध्यान आया कि आज ही की तारीख़ पर भैया ने उड़ान भरी थी । अब यह यात्रा संस्मरण आप सब से शेयर कर रही हूँ... 



उस दिन मैं पर्थमिंट (Perthmint) से बैज़ंडीन (Bassendean) स्टेशन तक ट्रेन में सफ़र कर रहा था । स्टेशन पर टिकट ख़रीदने के लिए मैं  क्यू में लग तो गया, लेकिन जब मेरी बारी आई तो पता चला कि वह एक इन्क्व्यारी काउंटर है और ट्रेन की टिकेट ऑटोमैटिक टिकट वेंडिंग मशीन (एटीवीएम) से मिलेंगे ।
माफ़ कीजियेगा, मैं बताना भूल गया। ये ऑस्ट्रेलिया के एक शहर पर्थ की घटना है । मेरी पहली विदेश यात्रा के दौरान की । हाँ, मुझे पता नहीं था कि भारत की तरह विदेश में बड़े नोट लेकर घूमना आम बात नहीं है । मेरे पर्स में पचास-पचास डॉलर के नोट थे, वो भी कई सारे । क्यूंकि मुझे लगा था कि अगर ज़रुरत पड़ जायेगी तो कहाँ-कहाँ एटीएम ढूंढता फिरूंगा !


ख़ैर, किसी तरह खुदरे पैसे जोड़ जाड़कर मैंने एटीवीएम से टिकट ली और ट्रेन के सफ़र पर निकल पड़ा । एक के बाद एक ख़ूबसूरत इलाकों से होती हुई ट्रेन बैज़ंडीन स्टेशन पहुंची । बिलकुल वीरान, सुनसान, खाली पड़े स्टेशन पर कोई भी नहीं था .. सिवाय एक स्टेशन मास्टर और एक पुलिस वाले के । जिसने दिल्ली मेट्रो के रणभूमि टाइप वाले मेट्रो स्टेशन देखे हो, उसके लिए ये सब बहुत ही सुकून देने वाला था..अचंभित करने वाला तो था ही । वहाँ से निकल कर मैंने एक बस ली और कैवरशम वाइल्डलाइफ पार्क (Caversham Wildlife Park) के लिए चल दिया। वीकेंड पर यही जगह देखूंगा, ऐसा प्लान मैंने बनाया था । सो वहाँ पर मैंने बहुत सारे कंगारू के साथ कई और जानवर देखे ।


आराम से पूरा पार्क घूमने के बाद, (वापसी की टिकट खरीदने के लिए मुझे खुल्ले पैसों की ज़रुरत पड़ेगी.. ये बात मैं भूल चुका था।) मुझे बैज़ंडीन स्टेशन वापस आने के लिए टिकट खरीदनी थी, पर मेरे पास छोटी अमाउंट का कोई नोट या सिक्का नहीं था । कम से कम पचास डॉलर का नोट ही जेब में था । मुझे पचास डॉलर का चेंज चाहिए था, पर स्टेशन पर सिर्फ एक पुलिसवाला था । जब मैंने हिम्मत करके उससे पचास रुपये के चेंज  देने की बात कही, तो पुलिसवाले ने मुझे यूँ देखा जैसे मैंने कुछ बहुत बुरा कह दिया हो । थोड़ी ऊँची आवाज़ में उसने मुझसे कहा, "Oh lord! 50 dollars! That's a big one. You can do a lot with that money but can't get a change. Go, get yourself a coffee from the market opposite the road. This way you can get coins."


इस बीच, मेरी बात ट्रेन स्टेशन से बाहर निकलते एक सज्जन ने सुनी और मेरे पास आकर मुझे एक डॉलर दे दिया और कहा, "Keep it. You can ask someone else for help for the rest of the amount." मैं अवाक् देखता रह गया.. वो सज्जन आगे निकल गए । पर फिर मैंने सोचा एक डॉलर काफ़ी नहीं है, इसलिए मैं स्टेशन से वापस बाहर निकल कर मार्केट पहुंचा । जिस कॉफ़ी शॉप की बात उस पुलिसवाले ने कही थी, वो दस मिनट पहले बंद हो चुका था । एक वृद्ध जोड़े से पूछा तो पता चला कि शाम पांच बजे सारी दुकानें बंद हो जाती है, पर आगे की तरफ़ एक-दो दुकानें खुली होंगी । मैं आगे बढ़ा, पर एक भी दुकान खुली न मिली । आगे एक ट्रैफिक सिग्नल पर सड़क पार करते वक़्त बैसाखी लिए एक आदमी (शायद भिखारी) से मैंने अपनी परेशानी ज़ाहिर की । मैं अभी ये जानने की कोशिश कर ही रहा था कि आगे कोई दुकान वगैरह है या नहीं.. इतने में ही उसने मुझे 70 सेंट (cent) दे दिये  और कहते हुए निकल गया कि आगे किसी और से मांग लेना। मैं सत्तर सेंट हाथ में लिए खड़ा रहा.. मैं समझ नहीं पाया भिखारी मैं था या वो ।


ख़ैर, ये जंग मुझे जारी रखनी थी.. सो मैं आगे बढ़ा । वहाँ मुझे दो महिलाएं मिली । जैसे ही मैंने अपनी बात कहनी शुरू की, उनमें से एक ने कहा, "No,No! I don't have any money. Go away."  अब इस बार मुझे यकीन हो गया था कि मैं परदेस में भिखारी घोषित हो चुका हूँ ।


अब तक मेरे पास 1 डॉलर 70 सेंट्स हो चुके थे । टिकट 4 डॉलर 50 सेंट्स की थी, इसलिए मुझे और पैसे चाहिए थे । आगे बढ़ा तो एक लांड्री में खूबसूरत गोरी लड़की दिखी। वो कपड़े धो रही थी । दूध का जला छाछ भी फूँक-फूंककर पीता है और किसी ख़ूबसूरत लड़की के सामने बेईज्ज़ती हो, ये किसे मंज़ूर होगा । इसलिए मैंने उससे मदद मांगने से पहले, मेरी जेब के सारे पैसे निकाले और कहा, "I have $600 and I am not a beggar. I need to get one of these bills changed so that I can buy a return ticket to Perthmint Station worth four dollar fifty cents and the automatic ticket vending machine is not accepting a $50 bill. Would you be able to help by changing this bill to smaller ones?"
इतनी धमाकेदार परफॉरमेंस के बावजूद उस लड़की ने चेंज नहीं दिया, पर मुझे एक डॉलर दे दिया । मेरे मना करने पर उसने कहा कि वो मेरी मदद कर रही है और बाकी की रकम मैं किसी और से मांग लूं ।
अब मेरे पास दो डॉलर सत्तर सेंट्स थे, टिकट खरीदने के लिए अब भी मेरे पास पूरे पैसे नहीं थे । मैं पूरी तरह से परेशान था और थक भी चुका था । आगे बढ़ा तो देखा अब वो सड़क खत्म हो चुकी थी और वो मार्केट भी । वहाँ से एक रेजिडेंशियल कॉलोनी  शुरू हो रही थी । थोड़ी दूर अंदर जाने पर एक छोटी दुकान दिखी, जिसमें soft drinks, cookies और biscuits जैसे आइटम बिक रहे थे । मैं खुश हो गया कि अब कुछ खरीदकर अपने पचास डॉलर के खुल्ले करा लूँगा । जब वी मेट की गीत की तरह मैं मन ही मन हाथ जोड़कर कहने लगा - प्लीज़ ! बाबाजी अब इस रात में और excitement मत देना। लेकिन कहानी अभी बाकी थी ।


दुकानदार फ्रेंच फ्राइज तल रहा था ।
"Hi, I'd like to have a coke." मेरे ऐसा कहने पर दुकानदार ने कहा, "Anything else, sir?"
मैंने आनन-फानन में एक स्मॉल फ्रेंच फ्राइज आर्डर कर दिया, क्यूंकि अब तक मुझे बहुत जोर की भूख लग चुकी थी । चार डॉलर के सामान के लिए दुकानदार ने मेरे पचास डॉलर के खुल्ले दे दिए। खुल्ले पैसे देखकर मुझे लग रहा था, मैंने कितनी बड़ी जंग जीत ली है ।
दुकान से निकलते वक़्त जब मेरी नज़र फ्रेंच फ्राइज के डब्बे पर पड़ी तो बड़ी हैरानी हुई । क्यूंकि वो इंडिया के मैकडी के फ्रेंच फ्राइज से दस गुने से भी ज़्यादा बड़ा था । ख़ैर, था तो यह मेरी मेहनत का ही फल । खाते हुए मैं स्टेशन पहुंचा और ATVM से वापसी की टिकट खरीद कर ट्रेन में चढ़ गया । इस बीच स्टेशन पर मौजूद उस पुलिसवाले ने मुस्कुराते हुए मुझसे कहा, "Man! Finally you got it." ट्रेन का दरवाज़ा बंद हो चुका था और मुझे ऐसा लगा जैसे भगवान उस पुलिसवाले के माध्यम से मुझे बहुत सारी बातें बताना चाह रहे हो ।
मैं इस घटना से काफ़ी कुछ सीख चुका था । अव्वल तो ये कि हमारे देश में ऐसी मदद देने वाले लोग कम मिलते हैं । और उस परदेस में मुझे भिखारी समझ कर या ना समझकर हर किसी ने बेहिचक मदद की । । यह संभव था कि टिकट के पूरे पैसे मांगकर जुटाये जा सकते थे । पर खुद ही आगे आकर मदद करने वाले लोगों का मैं शुक्रगुज़ार रहूँगा ।



ख़ैर, फ्रेंच फ्राइज खाते-खाते मैंने ट्रेन का सफ़र भी पूरा कर लिया.. होटल तक पहुँच गया.. कमरे तक पहुँच गया.. तब जाकर फ्रेंच फ्राइज ख़तम हुई । उस रात खाना भी नहीं खाया । कैसे खा सकता है कोई! इतने फ्रेंच फ्राइज और उसके ऊपर से इतनी चटपटे अनुभव के बाद ।