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Tuesday, July 1, 2014

ख़त में लिपटी रात...

(यह एक फिक्शनल ख़त है।)


सुनो,
         हाँ! मैं कब से तुम्हें ऐसे ही पुकारना चाहती थी और तुम भी मुझे ऐसे ही पुकारो, यही चाहती थी । ये ख़त इसलिए क्यूंकि ख़त लिखने का मौसम फ़िर से लौट आया है । सुना है, सबसे ज़्यादा प्रेम लिफ़ाफ़े में बंद इन्हीं लिखे शब्दों में झलकता है ।

मैं क्यूँ नहीं रह सकती तुम्हारे साथ ? मैं क्यूँ दूर जाऊं तुमसे या तुम मुझसे क्यूँ दूर जाना चाहते हो ? मुझे तो तुम्हारे साथ अपना हर वक़्त बिताना था.. सब बातें कहनी थी । तुम्हारी कुछ भी ना कहने की आदत सीखनी थी । मुझे तुम्हारे जैसा होना था ।

मैंने क्या चाहा था तुमसे, ये मुझे ख़ुद नहीं पता ! बस इतना कि मुझे तुमसे टोकरी भर बातें करनी थी और तुम्हारी कुछ बातें सुननी थी । तुम्हारे साथ सुबह की चाय, दोपहर का अलसाना, शाम की फ़ुर्सत, रात का महकना... ये सब गुज़ार सकूं, बस यही चाहा था । एक और चीज़ चाही थी, जो मुझे बेहद पसंद है.. कि तुम मुझे इअरिंग्स लाकर दो.. झुमके, बालियाँ..कुछ भी  या फ़िर चूड़ियाँ.. रंग-बिरंगी ।

जिस समन्दर के किनारे मैं कब से जाना चाहती हूँ.. वहाँ मैंने तुम्हारे साथ जाने का सपना देखा था । वहीँ किनारे किसी बेंच पर तुम्हारे साथ बैठ सकूं,तुम्हारे गाल नोंच सकूं, तुम्हें कस के गले लगा सकूं, रेत पर तुम्हारे पैरों पर अपने पाँव रखकर चल सकूं, लड़खड़ा सकूं, और तुम संभाल सको... बस यही चाहा था । पर मेरा ये सपना गीली रेत से बनाये उस घर जैसा था, जिसे समंदर अपनी लहरों के साथ बहा ले गया ।

ये सच है, मैं जो कुछ लिखती हूँ वो तुम्हें सोचकर लिखती हूँ । जो अनकही है, उन्हें लिखती हूँ । पर एक बात जो तुम्हें नहीं मालूम कि मैं तुम्हारा लिखा सिर्फ़ अपने लिए पाती हूँ । सिर्फ़ अपने लिए समझती हूँ.. इसमें कोई और रुख़, मुझसे बर्दाश्त नहीं होता । तुम्हारे लिखे में हर बार मैं अपना नाम ढूंढती हूँ । ख़ुद से जोड़ लेती हूँ। तुम्हारी नज़र में यही मेरी गलतियां हैं.. पर मेरे लिए ये एक ज़रिया है, तुम्हें अपने क़रीब पाने का.. बेहद करीब..बेहद बेहद करीब ।

तुम्हारा लिखा पढ़ते वक़्त कई बार आँखें भर गयी है मेरी..कई बार मुस्कुराई हूँ मैं.. जैसे एक-एक शब्द मेरे कानों में सुना रहे हो तुम । आते-जाते.. सड़क पर या फिर मेट्रो में सफ़र करते हुए, जब भी तुम्हारा कुछ पढ़ा, मेरी भावनाएं मेरे बस में ना रही । ये सच है ये ख़्वाबों की दुनिया है.. पर ख़्वाब तुमने नहीं देखे क्या कभी ?

मुझे मालूम है हम दोनों नहीं मिल सकते । क्यूँ नहीं मिल सकते, इसकी समझ मुझ में नहीं । ये सब तो मेरा कहा है, मेरे दिल की बात है.. पर तुम्हारे दिल में क्या है, ये तुमने कभी बताया ही नहीं.. या बताना चाहा ही नहीं.. या फिर तुम्हारे दिल में मेरे लिए कुछ रहा ही ना हो ! बस यही एक तकलीफ़ है । पहले एक बार कहा था ना तुमसे कि जब मिलोगे, और मैं गले लगने आऊं तो मुझे झटकना मत.. तुमने वही कर दिया है.. झटक दिया मुझे । देखा नहीं, मैं कितना चहकती हुई सिर्फ़ तुम्हारे क़दमों की आहट सुन के दौड़ती-भागती चली आई.. बस मुझे आता देख तुमने अपना मुंह फेर लिया ।

मैंने कई बार खुद को तुम्हारे पास पाया है .. नहीं.. नहीं ! तुम्हें अपने पास महसूस किया । ख़ुद को कैसे भेज दूं तुम्हारे पास?.. उसकी इजाज़त तुमने कहाँ दी है ! पर क्या तुमने मुझे अपने आसपास कभी महसूस नहीं किया !!! मुझे ये भी कभी समझ नहीं आया कि यूँ ही बैठे-बैठे.. या कोई दूसरा काम करते हुए मेरे दिल से तुम्हारा नाम कैसे निकल जाता है ! हंसी आएगी तुम्हें..पर कई बार होंठों से भी अकेले में तुम्हारा नाम पुकार देती हूँ । मुझे नहीं मालूम, मेरा दिल इतना पावरफुल कैसे हो गया ! शरीर के सारे अंगों में सबसे ज़्यादा मज़बूत । और अब तुम्हें ये छोड़ नहीं पा रहा.. दूर नहीं कर पा रहा.. हर बार एकाधा बातें कहने की फ़िराक़ में रहता है । तुमसे अलग होना इसके लिए कमज़ोरी की बात है ।

पिछला सावन भी हरा नहीं था.. सादा ही गुज़रा । इस सावन से फ़िर से ढ़ेर सारी उम्मीद लगाए बैठी हूँ.. शायद बूंदे मेरे लिए कोई पैग़ाम लेकर आये । जिसे पाकर मैं हँसते हुए रो सकूं या रोते-रोते हंस सकूं ! जैसे अभी कुछ बूंदे डायरी के पन्नों पर आ गिरी है.. ये सावन मेरे लिए इस बार शायद और हरा हो जाए ! और कुछ नहीं, तो एक ख़त ही मेरे नाम से भेज देना जिसे मैं तुम्हारी आवाज़ में पढ़ सकूं ।

ये तोहमतें नहीं है.. ना ही शिकायतें हैं.. इसे भी मेरे प्यार का एक अंदाज़ ही समझना । तुम जैसे रहना चाहते हो, वैसे ही रहो । मुझसे दूर । पर तुम मेरे क़रीब हमेशा रहोगे.. क़रीब नहीं, तुम तो मेरे अन्दर रहते हो । तुमसे जुदा होना मुश्किल है.. लेकिन तुम्हारे साथ रहना सांस लेने जैसा है । बेहतर है सांस लेती रहूँ.. धीमे-धीमे तुम्हें महसूस करती रहूँ । तुम्हारी ख़ामोशी को पढ़ती रहूँ और समझने की कोशिश करती रहूँ ।

नहीं नहीं करते-करते देखो मैं कितना बोल गयी.. आजकल मौसम ही ऐसा है.. सच ज़ुबान पर आ ही जाता है । सुनो, अब ज़्यादा नहीं लिख सकती। ख़त हैं ना, क्या पता उड़ते-उड़ते किसी के हाथ लग जाए.. कोई और पढ़ ले !



तुम्हारी,
मुझे तो ये भी नहीं पता मैं तुम्हारी क्या हूँ !! इतना पता है कि बस तुम्हारी हूँ, चाहे तुम मुझे अपना समझो..ना समझो ! इसलिए इस बार इसे ख़ाली ही रहने देती हूँ ।

.............

 

5 comments:

  1. What to say .... flow n language...emotions n assertions coiled in helplessness only love is capable of bestowing upon.....you made it Aanchal....congratulations

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  2. जिस्म थकता हुआ ..सुबह की तलाश में ! उठने को बेताब …चलने को बेताब – राह कैसी भी कब सोचता !
    समय के थपेड़े बरबस टकराते और कहते तोड़ क्योँ नही देते खामोशी .. चाहे तुम मुझे अपना समझो..ना समझो ! इसलिए इस बार इसे ख़ाली ही रहने देती हूँ ।

    भाव से भरी रचना !!

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  3. मेरा कुछ सामान
    तुम्हारे पास पड़ा है
    सावन के कुछ भीगे भीगे दिन रखे हैं
    और मेरे इक ख़त में लिपटी रात पड़ी है

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  4. ख़त को तुम्हारी आवाज़ में पढ़ सकूँ ... वाह.. बहुत खूबसूरत..

    कौन कहेगा कि यह एक काल्पनिक ख़त है.. मार्मिक और संजीदा

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  5. मैंने इस ख़त का जवाब लिखा है.....हो सके तो मेरी ब्लोग्स पर पढियेगा..
    www.dastakofdlm.blogspot.in

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