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Wednesday, July 31, 2013

बारिश का बोसा ...

आज मौसम का मुझपर रसूख हुआ कुछ ऐसा...
छूकर सावन की बूंदों ने मुझे,
कुछ लिखने को कहा है खुद जैसा.. ।


बारिश के बोसे से याद आये ज़िन्दगी के कुछ बोसीदा वरक़*..
झूमा आसमान, गाने लगी हवाएं और
आहिस्ते से कुछ कहने लगा मेरे मन का हर्फ़ ।

इसकी हर एक बूँद के बेगुनाह लम्स** से खिल जाती हूँ मैं..
इसकी शरारत भरी संगत में और भी निखर जाती हूँ मैं ।

हर बार महसूस होता जैसे कोई हबीब^ पैग़ाम लेकर आया है ये..
पर जब मचल कर जाती हूँ इसकी ओर,
तो चुपचाप मुस्कुरा कर मुझे अपनी नज़रो में भर लेता है ये ।

इस मुएँ की साज़िश में हर बार फंस जाती हूँ मैं..
आह भरकर इसके सामने रहने को मजबूर हो जाती हूँ मैं ।

कुछ-कुछ  बेतरतीब सा लिखने को कहा था इसने ऐसा..
मैंने भी शब्द ढाले है उसके ही अंदाज़े-बयाँ जैसा...।


आज मौसम का मुझपर रसूख हुआ कुछ ऐसा...
छूकर सावन की बूंदों ने मुझे,
कुछ लिखने को कहा है खुद जैसा.. ।



*  बोसीदा- पुराना वरक़- पन्ना
**लम्स- स्पर्श 
^  हबीब- प्यारा 

6 comments:

  1. हर एक बूँद के बेगुनाह लम्स से खिल जाती हूँ
    शरारत भरी संगत में और भी निखर जाती हूँ


    गहन लेखन बहती भावनाएं आंचल तुम खुद कविता हो .......

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  2. छ-कुछ बेतरतीब सा लिखने को कहा था इसने ऐसा..
    मैंने भी शब्द ढाले है उसके ही अंदाज़े-बयाँ जैसा।
    ==============
    बेहतरीन

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  3. इससे बड़ा संजोग हो सकता है की ग़ज़ल खुद ही कविता लिख रहा हो !!!
    जितनी मासूम तुम हो उससे कहीं ज्यादा मासूमियत तुम्हारी कविता बयां करती है।

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