रिव्यू नहीं है, एक सिनेमा देखी, उसका एक्सपीरियंस है। फिर भी, स्पॉयलर नाम की चिड़िया का खौफ़ होता है तो अपने रिस्क पर पढ़ें।
पीएस: मैं कोई फ़िल्म देखने के पहले किसी तरह का भी कोई रिव्यू नहीं पढ़ती।
टिकट:
पीवीआर काउंटर पर मेरे आगे दो लोग खड़े थे, जब मैं पहुँची तब, 'मैडम कितने टिकट?'
एक
आई कार्ड दिखा दीजिये ।
क्यूँ? (मैं हैरान थी कि मेरे पहले वाले लोगों से उसने आईकार्ड क्यों नहीं माँगा)
एज देखनी होती है मैम
मैं आईकार्ड देते हुए *swag में* - आय ऍम ट्वेंटी एइट ।
गुस्से से मैं काउंटर से निकल तो आयी कि उसने मुझे 18 के नीचे क्यूँ समझा, फिर बत्ती जली और लगा अरे ये तो कॉम्प्लीमेंट था..भला हो उस इंसान का ।
पंजाब:
गाड़ी चल रही है । टॉमी सिंह और उसके भाई गाने की डील खत्म करने वाले क्लाइंट को फोन पर गालियाँ बक रहे हैं । अचानक उसकी गाड़ी इनकी गाड़ी के बगल में दिखाई देती है । बाकी फ़िक्र छोड़ टॉमी का भाई उसे चिल्लाकर कहता है, "ओये तूने एस-क्लास कब ली?" वो भी तब जब वो सारे ख़ुद रेंज रोवर में सवार थे । गाड़ियों का क्रेज़ पंजाब की रग रग में बसा है ।
आलिया:
आलिया की पहली दो लाइन सुनकर लगा कि यार कैसी बिहारी बोल रही है। लेकिन अपने दूसरे सीन तक आते आते आलिया ने पूरी कमांड बना ली। कई जगहों पर लगता रहा कि ये बिहारी वाला एंगल एक्स्ट्रा हो गया शायद, शब्दों पर कम पकड़ और बिहारी इन्फ्लुएंस ना मिल पाना वजह रहा हो, लेकिन आलिया के अभिनय ने उन गलतियों को नज़रअंदाज़ करने पर मजबूर कर दिया। खंडहर और पुआल के ढेर पर टॉमी सिंह से बातें करते हुए आलिया ने आधी जान ले ली और आधी जान तब जब वो अपने शरीर में सुई भोंकने वाले को चादर से ढँक कर कील से भोंक भोंक के मार डालती है। बस, एक बार को यह लगा कि जब पंजाबी किरदार के लिए आप पंजाबी एक्टर्स को ले सकते हैं, तो बिहारी किरदार के लिए किसी बिहार के एक्टर को क्यूँ नहीं ! आख़िर, बिहार में हर कोई ओवर एक्टिंग नहीं करता, कोई तो सच्चा मिल ही जाता ।
टॉमी सिंह:
आश्चर्य है लेकिन फ़िल्म में टॉमी एक इंसान का नाम है और जैकी चैन एक कुत्ते का। लेकिन हाँ, टॉमी वो ही शख़्स है, जो हमारा दूसरा चेहरा है.. जिसे हम छुप-छुपाकर घूमते हैं। हमारा वही दूसरा चेहरा जो लाउड है, इसलिए पहली बार टॉमी को देखकर खीज आती है। और मेरे हिसाब से सबसे गहरा सीन वो रहा जब टॉमी टॉयलेट पॉट के पानी में अपना चेहरा देखकर चीख रहा होता है..गबरू को ढूंढ रहा होता है.. कितनी तड़प होगी ना उस इंसान में जो संडास में अपना चेहरा देख रहा हो, उससे पूछ रहा हो। (पता नहीं, मेरे फेलो-ऑडिएंस को इस सीन में भी क्यूँ हँसी आ रही थी)।
और दूसरा तब जब वो बिहारन आलिया को ढूँढने निकलता है, इक कुड़ी गाता है.. फिल्मी सीन है, पर क्या हमलोग कम फिल्मी हैं।
उड़ती ऑडियंस:
पूरी फ़िल्म के दौरान थिएटर में बैठे लोग ठहाके लगाकर हँसते ही रहें । कई बार मुझे समझ नहीं आया कि ये लोग हँस क्यूँ रहे हैं! किसी समान लेकिन गहरे सीन पर, बहन** की गालियाँ आते वक़्त, आलिया के बिहारी बोलने पर और इतना कि क्लाइमेक्स तक इनके ठहाके आते रहे । हो सकता है उनके लिये इस फ़िल्म में बहुत कुछ फनी चल रहा हो, लेकिन मुझे इस बात ने बहुत परेशान किया । वो गाली, जो इतनी आम है कि सगी बहन जैसी लगती है, उस गाली को परदे पर सुनकर इतना भी क्या हँसना । वो तो रोज़ का चुटकुला है, अगर कुछ करना ही है तो इस तस्वीर पर परेशान होने की ज़रुरत है । इसलिये अगर आप प्लान कर रहे हैं, तो आधी रात वाला शो देखने जाएँ, जहाँ लोग भी कम हो और शायद समझदार भी।
सरताज:
काफ़ी दिनों बाद परदे पर कोई दिखा जिसकी आँखें इतनी ख़ूबसूरत हो। आख़िरी सीन, सरताज सारे फ़ाइलों को देख रहा होता है और बल्ली उसके सामने ज़मीन पर बैठकर फूट फूटकर रो रहा होता है। बल्ली के आँसू सरताज की नसों में बहते हुए से मालूम होते हैं, करीबन पचास-साठ सेकंड तक चले इस सीन को दुबारा-तिबारा-कई बारा देखा जा सकता है।
उड़ती बात:
ऐसी फिल्में बनती हैं तो और ज़्यादा बननी चाहिए.. लोगों को प्लॉट-कहानी नहीं समझ आती तो उनको समझनी चाहिए.. अगर स्क्रीन पर बिहारी बोली और बहन** की गालियाँ सुनकर हमें हँसी आती है, तो हमें परेशान होना चाहिये.. और सोचना चाहिये, गूगल करना चाहिए कि क्या सच में स्थिति इतनी ख़राब है.. एक शहर नहीं, दो शहर नहीं, पूरा का पूरा राज्य और उसकी युवा पीठी इस कदर नशे में उड़ रही है !
बहुत दीन बाद लिखा बहुत अच्छा लिखा। यह सादगी और रवानी बहुत दिन से ब्लॉग्स में मिस कर रहा था।
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