एक स्त्री की पीड़ा है यह
या यों कहें कि सबसे बड़ा वरदान
बुरा-भला भी नहीं कह सकती इसे,
ऐसा है जैसे अगवा कर लिया हो किसी ने
ऐसा जैसे आक्रमण कर रहा हो कोई अपना
'रजस्वला' होने की दबी ज़ुबान की एक कहानी है ।
याद है उसे आज भी
सुबह उठते ही, बिस्तर लाल देख
घबराते हुए दौड़ी थी माँ के पास ।
माँ भी थोड़ा घबराई थी, लेकिन
ख़ुश होना लाज़िमी था ।
बेटी बड़ी हो गयी थी..
डर भी था कि चौदह साल की बच्ची,
बाहर अनजाने में किसी को कुछ बता न दे..
इसलिए घर की तीन औरतों ने मिलकर
दी थी ढेर सारी समझदारी ।
बेटी को बताया, अब वो बड़ी हो गयी है..
और बच्ची सोच रही थी..
"एक ही दिन में कहाँ से आ गयी इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी" !
याद है उसे आज भी
उन पाँच दिनों में दादी के सामने जाने का डर ।
दादी जिस कुर्सी पर बैठी हों,
उस कुर्सी को छू नहीं सकते..
दादी की प्लेट-गिलास को
यहाँ से वहाँ रख नहीं सकते..
दादी की साड़ी या दादी को छूना तो
बहुत दूर की बात थी ।
घर की बेटियों को
इन नियमों में थोड़ी छूट थी
लेकिन बहुएँ..
गलती से भी गलती नहीं कर सकती थीं ।
पाँच दिन की यह पीड़ा
महीने के तीसों दिन डराती है ।
गुस्से में माँ के सामने ग़र कह दिया,
कि "ये ग़लत है.. हमें ही क्यूँ भुगतना पड़ता है" !
माँ ऊफ़ करते हुए शांत कराती और कहती,
"ऐसा नहीं कहते.. ये भगवान की देन है" ।
अबोधपना फिर पूछ बैठता,
"भगवान की देन है तो फिर भगवान के मंदिर में जाने पर ऐतराज़ क्यूँ !!"
माँ के समझाने का तरीका बहुत ख़ास होता है..
बिना जाने, बिना पढ़े भी,
माँ दुनिया की हर बात समझा जाती है ।
अबोधपने के गुस्से को उसी तरह शांत किया माँ ने,
"यह प्रकृति का नियम है। पुरुष इतना दर्द नहीं सह सकते, इसलिए ये ख़ास वरदान सिर्फ औरतों को मिला.. स्त्री होने का सबसे बड़ा गुण है यह ।
मैं भी बड़ी हुई, पत्नी बनी और फिर माँ...
..और माँ होना इस सृष्टि की सबसे बड़ी ख़ुशी है।"
फिर वही दबी ज़ुबान की कहानी बनकर रह गयी
ये पीड़ा.. या यों कहे वरदान ।
कैलेंडर की तारीखों पर,
हर महीने छुपाकर लगते उन निशानों की तरह...
ये भी एक स्त्री को पूर्ण करते है ।
Aanchal .. very nice... u just wrote simply about this .. which is still a taboo in our society.. hats off
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