....और आज एक नयी सुबह के साथ हम चल पड़े अपने जीवन के एक नए पन्ने को पलटने...अपने "नूतन-बाड़ी" की ओर...मैं,भैया और पापा....हालांकि जा हम रहे थे एक नए किराए के मकान में ही, लेकिन कई तरह के भाव मेरे मन में उमड़ रहे थे...यूँ तो दिल्ली जैसे शहर में मकान बदलना कपडे बदलने जैसा लगता है मुझे, लेकिन बात हमारे लिए तब खास हो जाती है जब हम सात साल से रह रहे एक मकान को छोड़ कर निकलते है. बहुत सारी यादें...ढेरो बातें लेकर :)
आज पुराना घर "ठन-ठन गोपाल" की तरह लग रहा था...मैंने जब पहली बार गुलाबजामुन बनाए थे,तो भाभी जी (Landlord) को ही खिलाया था..दिल्ली की मेरी माँ जैसी ही तो है वो..कोई नए स्टाइल की सब्जी बनायी या कुछ भी स्पेशल बनाया मैंने सबको खिलाया..वो भी हर बार उतने ही प्यार से काली दाल मुझे देती की "ये ले! तुझे पसंद है ना"...बहुत सारी बातें है, मेरे अभी तक के छोटे से जीवन का बहुत बड़ा हिस्सा मैंने उस मकान में गुज़ारा..इसलिए शायद आज सुबह मेरी 'छोटी सी विदाई' भी हुई....
जब तक अपने घर पर थी..अपने शहर, अपने गाँव में थी..तब तक इस "किराए के मकान" का कोई अता-पता नहीं था..कुछ नहीं जानती थी..किरायेदार और मकानमालिक के बारे में..खैर दिल्ली ने ये भी सिखाया. हाँ तो अब हम नए डेरे पर है...अभी ये 'मकान' है, 'घर' बनाना है इसे..सजाना-संवारना है इसे..और मैं तो ये सोच कर ही खुश रहती हूँ की मेरे इतने सारे 'मायके' बनते जा रहे है...
अब सुबह-सुबह वो चेहरे नहीं दिखेंगे....मेरे सामने साल भर की मेरी जान सिल्क नहीं दिखेगी..वो मुझे मासी की आवाज़ भी नहीं लगाएगी..याद तो सबकी बहुत आएगी. और बदल गयी वो दूध की दूकान, बदल गए वो चेहरे, ग़र नहीं बदला कुछ तो वोही दिल्ली की हवा..सुबह की रौशनी और मैं.
और मेरे आदर्श रवीश कुमार के अनुसार वैशाली(क्षेत्र) अगर 'नगरवधू' है तो मेरे हिसाब से द्वारका(क्षेत्र) राजकुमार.
(to be cont.)
घर बदलते हुए जावेद अख्तर साब की "वो कमरा बात करता था" याद आती है मुझे हर बार. बहुत अच्छा लिखती हैं आप, लिखती रहें!
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया आपका..
Deleteहर वो घर जो मेरे जेहन में था आज आपका ब्लॉग पढ कर ऐसा लगा जैसे वो गलिया आज भी मुझे याद करती होगी !!!
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